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सत्य हरिश्चन्द्र
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चरण पकड़ लू कोटिवार मैं, किन्तु क्षमा की क्या भिक्षा ? झूठ बोलकर खुश करने की मिली नहीं मुझको शिक्षा । अब तो राज - मुकुट की उपधी चरणों में लेनी होगी, सेवक को कर्तव्य - भार से छुट्टी दे देनी होगी ।" "अच्छा तो ला क्या देता है.? देखू कैसा दानी है ? देने को न एक कौड़ी बस खाली अकड़ दिखानी है।" हरिश्चन्द्र ने हँसते खिलते भूमि • पिण्ड ऋषि के कर मेंदे कर कहा- "आज से सारा राज्य आपके श्री - कर में !" कौशिक ने संकल्प ग्रहण कर स्वस्ति कहा लज्जित मुख से, अखिल सभा में सभी ओर अति नीरवता छाई दुःख से । क्रोध विचारों का नाशक है, सम्यक् - ज्ञान नहीं रहता, क्या होगा फल आगे, इस का कुछ भी भान नहीं रहता। कौशिक का क्रोधानल प्रतिपल - प्रतिक्षण बढ़ता जाता है, नृप का देख दान का साहस, क्षुब्ध और हो जाता है । हरिश्चन्द्र को नीचा दिखलाने की, बस मन में ठानी, भूल - भाल कर मुनि - मर्यादा, करते केवल मन मानी। "राजन् ! तव सर्वोच्च दान है, हुआ न ऐसा कभी कहीं, किन्तु दान के योग्य दक्षिणा, देने की क्यों कमी रही ?" "क्षमा करें, मैं भूल गया था, क्या विलम्ब है अब लीजे" "सचिव ! कोष से सहस स्वर्ण की मुद्रा ला ऋषि को दीजे।" "धन्यवाद है, क्या इसको ही कहते राज्यश्री का दान, राज्य दे चुके, फिर भी अटका हुआ कोष के ऊपर ध्यान ।"
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