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सत्य हरिश्चन्द्र
"कैसे देगा इतना ऋण ? क्या भीख कहीं से मांगेगा ? व्यर्थ कदाग्रह से कुल पर अमिट कलंक लगा लेगा ?" "मांगेगा क्या कश्यप - वंशी, वह तो बस देना जाने, होता है मालूम अभी तक, नहीं दास को पहचाने।" "अच्छा फिर कैसे लाएगा ? अरे हमें भी तो बतला, बातें बना, दक्षिणा - धन में डालेगा इक दिन घपला।" "तन बेचूं, कुछ करूं, आपका ऋण न डूबने पाएगा, हरिश्चन्द्र रवि - कुल - गौरव को नहीं कलंक लगाएगा। आज अभी तो यह जीवन है, और नहीं कुछ देने को, एक मास का समय चाहिए ऋण का भार चुकाने को।!" क्रोध - प्रकंपित स्वर में बोले- 'अरे नहीं अब भी हटता, एक मास का अवसर देता अच्छा दिखला प्रण - दृढ़ता। तीस दिनों से बढ़ा एक भी दिन तो ब्रह्म • दण्ड दूंगा, कर डालूगा भस्म पलक में, सारी अकड़ निकालूगा !" "ब्रह्म - दण्ड से नहीं, एक बस सत्य • दण्ड से डरता हूँ, तन, धन, जीवन नश्वर है, परवाह न इसकी करता हूँ। शिरोधार्य है आज्ञा, ऋषिवर ! पूर्णतया पालन होगी, चलता हूँ, अब ऋण - शोधन में देर नहीं कुछ भी होगी।" "कहाँ चला है, एक बात है, सुनले ध्यान लगा कर तू, महा पुनीत दक्षिणा - ऋण है, देना स्वयं कमा कर तू । अगर किसी से बिना परिश्रम मुफ्त दक्षिणा लाएगा, स्पष्ट कहे देता हूँ, कौशिक पैरों से ठुकराएगा।"
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