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सत्य हरिश्चन्द्र
मामूली - सा प्रश्न नहीं है, राज्य - दान का कण्टक-मग, सोच - समझ कर चलिए, सहसा करने से हँसता है जग !" "आप मौन ही रहें, व्यर्थ मत बाधा डालें शुभकृति में, हरिश्चन्द्र का राज्य जा रहा नहीं किसी भी दुष्कृति में । आप सोचिए अपने प्रण से क्षत्रिय कैसे हट सकता ? वैभव से कर्तव्य बड़ा है, सत्य नहीं अब मिट सकता। सूर्य - वंश का गौरव इससे जग में युग - युग फैलेगा, हँसने का क्या काम ? सत्य का जग आदर्श पकड़ लेगा।
सौंप रहा हूं राज्य - धुरा को, योग्य पात्र के दृढ़ कर में, कष्ट प्रजा को क्या होना है ? करें न संशय अन्तर् में । कौशिक ऋषि पहले राजा थे अब अति घोर तपस्वी हैं, नहीं देखते क्या तुम ? कितने लोचन - युगल तेजस्वी हैं।
तुमको तो इक साथ मिलेगी, महाभाग्य से सुन्दर सृष्टि, भूपति का वीरत्व, तपस्वी योगी की भी अन्तर दृष्टि ।" हरिश्चन्द्र ने सरल भाव से कहा, किन्तु ऋषिजी भड़के, हुआ व्यंग का भास व्यर्थ ही वह धन - विद्यु तसे कड़के । "अरे व्यर्थ की बात न कर, क्या रखा है इन बातों में, मैं भी समझ रहा हूँ जो कुछ छुपा रहा है घातों में !
चरण पकड़ ले, क्षमा माँग ले, राज्यदान कर क्या लेगा? करणा-वश होकर कहता हूँ, गर्व तुझे क्षय कर देगा !" शान्त-भाव से हाथ जोड़कर कहा भूप ने-“हे ऋषिवर । गर्व,कपट का काम यहाँ क्या? स्वच्छ, सरल, मृदु है अन्तर ।
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