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सत्य हरिश्चन्द्र
यदि कोई अधिकार बिना, बन्दी को बन्धन में डाले, तो बन्दी कर मुक्त शीघ्र ही भूपति निज शासन पाले। बन्दी करने वाले को भी उचित दण्ड नृप देता है, हरिश्चन्द्र' तो केवल बन्दी छोड़, क्षमा कर देता है। वादी हैं ऋषि आप, और मैं प्रतिवादी हूँ, क्या झंझट ? न्याय करालें पंचों से, मिट जाय व्यर्थ की सब खटपट !"
हरिश्चन्द्र का उत्तर सुन कर कौशिक ऋषि कुछ घबराए, मानस - नभ में उमड़ संकल्प - विकल्पों के घन छाए।
"मैंने तो सोचा था नृप को दण्ड स्वयं उसके मुख सेदिलवाऊंग, बात - चीत के चक्कर में ला कर सुख से । पर यह तो मुझ को ही उलटा अपराधी ठहराता है, 'दिया न दण्ड' इसी में अपनी कृपा विशाल बताता है । राजा का है पक्ष प्रबल, सब न्यायोचित इसका कहना, अगर सभा में करूं मान्य तो पड़े घोर अपयश सहना । दण्ड • वण्ड तो गया, मात्र अपराध अगर स्वीकृत करले, कौशिक तो बस इतने भर से अपने दिल के व्रण भरले।" विश्वामित्र गर्ज कर बोले, काँप उठा परिषद् - मण्डल, भीति - त्रस्त जनता के मन में मची भयंकर उथल - पुथल । "अरे, नीच ! अज्ञान ! समझ ले, तू अपराधी है मेरा, बन्धन - मुक्त अप्सरा कर दों, क्या अधिकार बता तेरा ? दोष न अपना माना, उलटा मुझ पर ही दोषारोपण, दूषित है अज्ञान - दोष से तेरे जीवन का कण-कण ।
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