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न्यायालय में
जीवन में कर्तव्य का जो रखता है ध्यान,
वह गौरव है विश्व का, पाता जग-सम्मान ! भूपति निज नियमानुसार सब नित्य कर्म से निबट गए, सूर्योदय होते ही न्यायासन पर आ आसीन हुए। ठीक समय पर अधिकारी भी निज - निज आसन पर आए, नृप यदि कर्मठ न्याय-निरत हो, फिर क्या गड़बड़ हो पाए । न्यायासन पद बैठ न्याय करने में वे संलग्न हुए, योगी - जैसे योग • साधना के साधन में मग्न हुए ! न्याय, योग दोनों ही मन का साम्य - रूप अपनाते हैं, चञ्चल मन होने पर दोनों कार्य नष्ट हो जाते हैं। योगी जैसे प्राणिमात्र को अपने तुल्य समझता है, शासक भी पर के सुःख - दुख का भान हृदय में करता है । एक - एक अभियोग प्रजा का बड़ी शान्ति से निबटाते, वादी - प्रतिवादी दोनों ही खुश हो जय - मंगल गाते । अपराधी तक सुप्रसन्न है, स - क्षति दण्डित होकर भी, राजा के प्रति खेद नहीं है, अपनी इज्जत खो कर भी। शासक नृप जब हृदय पिता का बना नियंत्रण करता है, उभय पक्ष के स्वच्छ हृदय में प्रेम हिलोरें भरता है। हाँ, तो इधर न्याय का शासन, उधर विपिन में भी चलिए, सूर्योदय होते ही कौशिक चले शिष्य - गण साथ लिए ।
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