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सत्य हरिश्चन्द्र
४३ यदि ऐसा होता तो पहले, बन्धन में बंधती ही क्यों ? एक बार जब बद्ध हुई तो, पुनः स्वयं छुटती ही क्यों ? अरे, कहो क्या स्वयं पापिनी मेरे बन्धन से छुटी ? अथवा कोई अन्य विमोचक है, जिसकी किस्मत फूटी ?" "आप बांध कर आए, उसके कुछ ही देर बाद राजाहरिश्चन्द्रजी आए, लेने स्वच्छ हवा वन की ताजा । कौशल - पति को देख पुकारा, दयामूर्ति झट - पट आए, हाथ लगाते ही बन्धन के ढूढे चिन्ह नहीं पाए ।" शिष्यों की सुन बात क्रोध का सागर दुगुना लहराया, क्षुब्ध हृदय में कुविचारों का बतिभीषण अंधड़ आया।
गीत
आज जालिम नास्तिकों से भर गया संसार क्या ?
पाप-मल का सब के मन पे छा गया अंधकार क्या ? आश्रमों का नष्ट होता जा रहा गौरव सभी,
भूल बैठे क्रुद्ध ऋषियों की विकट हुंकार क्या ? यह हरीचंद दास चरणों का, बिगड़ कैसे मया ?
मुझको, मेरे तप को भूला क्यों, हुआ कुविचार क्या? मैं वह कौशिक हूँ कि जिसका विश्व पर आतंक है,
मेरे आगे मान्य ऋषियों ने न पाई हार क्या ? आके करुणा के नशे में अप्सराएँ खोल दी,
मैं तो जालिम नीच - निर्दय, तू दया भंडार क्या ? चूर्ण कर दूंगर न तेरा गर्व तो धिक है 'अमर'
मैं हूँ विश्वामित्र तूने समझा है मुर्दार क्या ?
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