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सत्य हरिश्चन्द्र
मुझ से न्याय कराने आए, कुछ भी नहीं समझ में आए,
राज से क्या ऋषियों का काज ! आज्ञा होती मैं खुद आता, जो कुछ होता हुक्म बजाता,
आप हैं हम सब के सरताज ! ऋषिवर होते समता - धारी, बहता करुणा - निर्भर भारी,
आप हैं किस पर क्यों नाराज ! न्याय औ' क्रोध मेल नहिं खाते, क्रोध से झूठे माने जाते,
सूत्र यह शासन का महाराज ! शान्ति से बैठे, यह आसन, कीजे ऋषि - मर्यादा पालन,
__ भूमि पर खड़े, हमें है लाज ! राजा सभी प्रजा का होता, कुछ भी पक्षपात ना होता,
न्याय यहाँ पाता शुद्ध, समाज !
जहाँ सत्य का तेज वहाँ पर त्रास नहीं कुछ भी होता, दुर्बल पापात्मा ही भय का दृश्य देखकर है रोता । देख नृपति की मुख - मुद्रा अति शान्त मनोरम तेजोमय, चकित रह गए कौशिक ऋषिवर, बनी मुखाकृति लज्जामय । मन में पश्चात्ताप उठा- “मैं क्यों न्यायालय में आया, तप - बल द्वारा आश्रम से ही क्यों न बिछादी निज माया ।
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