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सत्य हरिश्चन्द्र
रहे भड़कते सारी रजनी, नहीं तनिक निद्रा आई, "कब प्रभात हो, चल सभा में. करू भर्त्सना मन - भाई।"
पाठक ! क्रोध - क्षमा का, करुणा - हिंसा का अन्तर देखा, ऋषि होकर भी नहीं पा रहे, अणु भर भी समता - रेखा । बाँधा क्या सुर बालाओं को, स्वयं आप ही बँध बैठे, जब से बाँधा है तब से ही, चिन्ता के सागर - पैठे।
उधर सत्य के धनी, कौशलाधीश शान्त करुणा - सागर, मुक्त किया, तो मुक्त-हृदय हैं, नहीं अशान्ति उन्हें तिलभर ! वह उपकार, दृष्टि में उनकी, क्या महत्त्व कुछ रखता था ? भूल गए वह दृश्य, रात्रि - भर सोये, मन न भटकता था ! सज्जन कर उपकार किसी पर, नहीं याद मन में लाते, मात्र निमित्त समझते खुद को, भाग्य उसी का बतलाते । वही श्रेष्ठ है मूक भलाई, जिसमें गर्व नहीं होता, अहंकार से मलिन धर्म तो, बीज पाप का ही बोता !
वन में, पुर में, एक साथ ही सुप्रभात विकसित आया, किन्तु घोर वैषम्य उभयतः, कैसी है विधि की माया !
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