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सत्य हरिश्चन्द्र
गीत
प्राण प्रिये, वन भूमि का सुन्दर साज सजाना है,
वन - यात्रा के मर्म को जीवन पथ में लाना है ! वन - गुलाब ने सर्दी - गर्मी तूफानों का कष्ट सहा, छोड़ा किन्तु न मार्ग प्रगति का तभी शान से महक रहा,
मानव निर्भर रूप है, उसे कहां सुस्ताना है ? मानव होकर भी जो अपना लक्ष्य न पूरा कर पाया, वह वसुधा - मण्डल पर,यदि आया भी तो क्या आया,
भोग - निरत होकर अमल जीवन-पुष्प सड़ाना है ! मानव तो आनन्द, स्फति,उत्साह, प्रगति का अनुगामी, लक्ष्य भूल कर सुख-निद्रित ही बन जाता है प्रतिगामी,
'अमर' आज से कर्म का पथ अपना अपनाना है ! "धन्य,धन्य,शतवार धन्य है, रानी ! तू सचमुच रानी, समझाया कर्तव्य-मार्ग का पाठ हितंकर सुख-दानी !
सूर्यवंश के गौरव को मैं सदा सुरक्षित रखूगा, दीन प्रजा की उन्नति के हित उठा न कुछ भी रखूगा !" सन्ध्या होते राजमहल में आये, भूरति औ' तारा, वन - प्रदेश - वर्णन में गुजरा पूर्वभाग निशि का सारा !
किंचित्काल शयन कर प्रातः उठे उषा की गरिमा में, शौच, स्नान से निबट शीघ्र ही लगे जिनेश्वर - महिमा में ! राज - सभा में उचित समय किया सुशोभित सिंहासन, पक्षपात से रहित न्याय कर किया प्रजा का मन - पावन !
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