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सत्य हरिश्चन्द्र
२७ आगे को बढ़ा के पैर पीछे को हटाना क्या ? शूली हो, या फांसी होवे,, दिल धड़काना क्या ?
प्राण भी दे रक्षा करनी अपनी जबान की ! सत्य के पुजारी होके फिर ललचाना क्या ? विश्व की विभूति आगे हाथ फैलाना क्या ?
एक मात्र अभिलाषा सत्य के वरदान की! कण्ठी और मालाओं से गर्दन तुड़ाना क्या ? भूखे - प्यासे रह - रह कर तपसी कहाना क्या ?
बाहर से लेना क्या, यहाँ परख ईमान की ! सत्य छोड़, नदी - नालों तीर्थों में मारा फिरा, वासना का मेघ घनघोर चारों ओर घिरा,
मिथ्या - भ्रमण में फँस आत्मा हैरान की ! सत्य की चमक चाँद तेज सूर्य दिखलाता, सत्य के प्रभाव से 'अमर' विश्व झुक जाता,
___ सत्य के सहारे धुरा जमों आसमान की !
सत्य धर्म का गान श्रवण कर सभा हुई हर्षित सारी, मुक्त - कण्ठ से नर्तकियों की हुई प्रशंसा अति भारी । आनन्दित हो देवराज भी लगे प्रेम से यों कहने, मन्दर गिरि के स्वर्ण श्रङ्ग से लगा शान्त निर्भर बहने ! "सत्य वस्तुतः अटल सत्य है, बड़ी सत्य की गरिमा है, स्वर्ग लोक का यह वैभव भो मात्र सत्य की महिमा है। यत्र तत्र सर्वत्र विश्व में जहाँ कहीं भी उन्नति है,
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