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सत्य हरिश्चन्द्र देवलोक में सत्य नहीं है, मृत्यु लोक में सुन्दर है, हरिश्चन्द्र को करें वन्दना देव, कठोर निरादर है।
आदि काल से हम देवों का मानव दास कहाया है, किन्तु इन्द्र ने आज उसे ही कितना शीश चढ़ाया है ?" "हरिश्चन्द्र तो सत्यमूर्ति है, नहीं मनुज वह साधारण, देवों की सम्मान - हानि का, इसमें प्रभु है क्या कारण ?" "बुद्धि भ्रष्ट हो तुम सब, तुम को पता नहीं है गौरव का, आज इन्द्र की बातों में धिक्कार भरा है रौरव का ! हरिश्चन्द्र क्या देव बन गया आखिर अब भी मानव है, अभी डिगाता हूं मैं जाकर, कहाँ सत्य का ताण्डव है ? और देव हैं मूर्ख नपुंसक, नहीं किसी में कुछ साहस, पाते हैं दिन-रात भर्त्सना तदपि न जगता भैरव रस !
किन्तु जरा भी जन्मभूमि का मैं अपमान न सह सकता, हरिश्चन्द्र हो, या कोई हो क्षमा नहीं मैं कर सकता !' पति की कुटिल वृत्ति से परिचित मौन हुई देवी सारी, "नाथ, आपकी इच्छा पर है, आप स्वयं सन्मति धारी।"
"मेरे साथ तुम्हें भी वसुधा - मण्डल पर चलना होगा, जैसे भी हो हरिश्चन्द्र को सत्य - भ्रष्ट करना होगा ! भय से, छल से, उत्पीडन से, अथवा किसी प्रलोभन से, हरिश्चन्द्र को डिगा, स्वर्ग की लाज रखो तन से, मन से !"
दीन अप्सरायें भी पति के साथ चलीं मन को मारे, ऊपर से कुछ बोल न सकतीं, दिल में जलते अंगारे !
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