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सत्य हरिश्चन्द्र
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स्वार्थ सिद्धि हो, तदपि न सज्जन पाप - पंक में फंसता है, साधारण जन-स्वार्थ - पूर्ति के लिये विवश यो धंसता है।
पर, दुर्जन की कुछ मत पूछो, बिना प्रयोजन ही पापी, पाप - गर्त में हँस - हँस गिरता, कैसा जीवन अभिशापी ।
आज पाठको, सज्जन - दुर्जन में संघर्षण छिड़ता है, जरा ठहरिये, दृश्य देखिये, क्या परिणाम निकलता है ?
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