________________
विश्वामित्र ऋषिवर विश्वामित्रजी फँसे बीच में व्यर्थ,
अनुचित कोपावेश से होते क्या न अनर्थ ? पुरी अयोध्या से किंचित - सा दूर विपिन में 'सिद्धाश्रम' ऋषिवर विश्वामित्र साधना उग्र साधते इन्द्रिय - दम ! वातावरण शान्त है सुन्दर, शोभा अधिक निराली है, मुनि - पालित तरुलता-वृन्द पर क्या मोहक हरियाली है ! अभिमानी वह देव अप्सरा - संग यहीं पर चल आया, आम्र - वृक्ष के नीचे बैठा, मन में मत्सर - तम छाया ! "हरिचन्द्र को मैं किस विधि से सत्य धर्म से पतित करू ? कैसे देवराज के मन की गर्व - कल्पना दलित करू ? हरिश्चन्द्र - सा वर्चस्वी क्यों सुर - बाला से मोहित हो ! सन्तोषामृत पीने वाला नहीं प्रलोभन - वंचित हो । अगर कष्ट दूं, इन्द्र कुपित हो, बड़ी समस्या अड़ती है, क्या कुछ करूँ. बुद्धि के पथ में समझ नहीं कुछ पड़ती है।" आखिर चिन्तन करते - करते मार्ग एक स्मृति - पथ आया, उदासीन मुख पर आशा का हर्षोन्माद झलक आया ! "ऋषिवर विश्वामित्र कोप के कारण हैं जग में विश्रुत, हरिश्चन्द्र से इन्हें भिड़ा दु, काम बने कैसा अद्भुत ? फूल चुनें सुर बालायें ऋषिराज क्रुद्ध हो जाएँगे, बन्धन में डालेंगे देवो, भस्म नहीं कर पाएँगे !
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org