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सत्य हरिश्चन्द्र
बन्धन - मोचन - हेतु उपक्रम किये अनेक, न सफल हुई, लगी तड़पने, हरिणी सम वे भयाक्रान्त हो विकल हुई ! बद्ध देख कर गर्वमत्त ऋषि गर्ज उठे जैसे जलधर, "देख लिया, मैं कौन ? शक्ति क्या मेरी है जग - प्रलयंकर ! तुमने तो समझा था, क्या कर सकता है, यह भिखमंगा, अब निज करणी का फल भुगतो व्यर्थ मचाया क्यों दंगा? बन्धन तो क्या दण्ड ? तुम्हें भी भस्म अभी कर सकता हूँ, अबला किन्तु समझा, निज करुणा-भंग नहीं कर सकता हूँ।' अबलाओं की क्रन्दन-ध्वनि पर तरस नहीं कुछ भी आया, देख सफलता निज तप - बल की गर्व अमित मन में छाया ! राज - मुकुट, धन-कंचन तजना सहज, न कुछ भी जोर लगे किन्तु मान - अपमान द्वन्द्व में, त्याग - विराग तुरन्त भगे ! कोप और अभिमान उभय ने मुनिपद का सम - रस लूटा, अन्तर में चिररुद्ध राजसी - वृत्ति - स्रोत सहसा फूटा । गर्जन - तर्जन करते वापस लौट गये मुनि आश्रम में, क्या समाधि फिर लगनो थी, फँस गये विकल्पों के भ्रम में !
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