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सत्य हरिश्चन्द्र रंग महल में सुरा सुन्दरी का चहुं दिश फैला विभ्रम, सूर्य - चन्द्र से गुरुवंशों का होता क्षय प्रतिपल विक्रम ।
आज भ्रमण है निरपराध पशु - पक्षी - गण की हत्या का, क्षण भर की मन मौज, अमंगल रूप धरा है कृत्या का ॥ मोटर, यान, पवन की गति से इधर • उधर दौड़े फिरते, दीन प्रजा के बालक - बूढ़े प्रतिदिन कितने दब मरते । अगर आज भारत के राजा उसी पुरातन पथ चलते, मातृभूमि को नहीं देखने, ये दुर्भर दुदिन मिलते।
अलं, चल पड़े किस तम - पथ पर, हरिचन्द्र की ओर चलो, पा कर अमित प्रकाश सत्य का दुराचरण को दलो - मलो राज्यकार्य से निबट, नित्य की भाँति, भूप पुर से निकले, वन - यात्रा के लिए अश्व पै चढ़ लहरों के सम उछले । वन में बद्ध अप्सराओं का पति सेवक का रूप धरे,
आ कर मिला नृपति से फलतः सिद्धाश्रम की ओर ढरे । बद्ध अप्सराओं ने ज्यों ही सुना दूर से जय - जय कार, देखा ध्वनि-पथ ओर शीघ्र ही भयकातर निज आंख पसार । मानव - गण - परिवेष्टित अश्वारोही नयनों में आया, हरिश्चन्द्र के दर्शन पा कर मोद अमित मन में पाया । “पाप वृत्ति के पड़ी फेर में, किन्तु भाग्य - रेखा जागी, इसी बहाने हरिश्चन्द्र के दर्शन पाए बड़ भागी। संभव है, इस ओर न आएँ, कहीं और ही टल जाएँ, बस, फिर हम तो तीन काल में बन्धन - मुक्त न हो पाएं !"
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