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सत्य हरिश्चन्द्र
सभी अप्सरा दीन - भाव से लगीं विकल रोदन करने, रोदन सुनते ही नृप - मन में बहे दया के शत झरने ।
आज्ञा पाते ही सेवक जन पता लगा झटपट आए, "सिद्धाश्रम में चार षोडशी लताबद्ध मन कलपाए।" तत्क्षण आश्रम में चल आए, लगे देवियों से कहने, "किस कारण, कब, किसने बाँधा, पड़े घोर संकट सहने।" "नाथ ! अप्सरा हम उपवन में क्रीड़ा करने आई थी, पुष्प - सुगन्धित तोड़ लिए, कुछ मन में नहीं बुराई थी। इतना-सा अपराध, और यह दण्ड भयंकर लख लीजे, विश्वामित्र क्रोध के बडवानल हैं, दोष किसे दीजे ?" "ऋषि - आश्रम में तुम्हें उपद्रव कभी न करना चाहिए था, क्या गौरव है तपोवनों का, तुम्हें समझना चाहिए था। तुमने गुरु अपराध किया है, किन्तु दण्ड उससे गुरु - तर, मुनिजन तो अपराधी पर भी रखते हैं करुणा मृदु - तर।" "हाथ जोड़ कर श्री चरणों में विनय, प्रभो! करुणा कीजे, जीवन - भर गुण गाएँगी हम, मुक्त पाश से कर दीजे ।" "अभी छुड़ा देता हूँ तुमको, मन में खेद न करिएगा, पर, भविष्य में कभी किसी आश्रम में विघ्न न करिएगा।" "आज आपके सम्मुख दिनकर - साक्षी से प्रण करती हैं, भंग न होगा आश्रम गौरव, उत्पीडन से डरती हैं।" हरिश्चन्द्र ने सत्य स्मरण कर हाथ लगाया जैसे ही, मुक्त अप्सरा सभी हो गईं, पलक मारते वैसे ही।
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