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सत्य हरिश्चन्द्र
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"नाथ, करू क्या, कुछ ऐसा ही हृदय बना है नारी का, दुर्बल मन है दास अशुभमय आशंका हत्यारी का। वन में क्या • क्या कष्ट सहेंगे, कुछ भी ना सोचा पहले, किन्तु अनन्तर आशंका से मानस के चिन्तन बदले ! हो जाता है कुछ ऐसा ही इसकी क्या चिन्ता करनी, स्वर्ण-पुच्छ मृग कहाँ कि जिसके कारण पड़ी व्यथा भरनी।" राजा हँस कर बोले-"तुम तो बड़ी विचक्षण हो रानी, स्वप्न - लोक की व्यर्थ कल्पनाओं से क्या आनी - जानी ? पक्षाधिक वन, प्रतिवन घूमा, देखे पशु • पक्षी नाना, किन्तु तुम्हारा स्वर्ण - पुच्छ मृग देख न पाया, क्या पाना। तुम-सी बुद्धिमती नारी, क्या कभी असम्भव हठ ठाने, गुप्त - रहस्य क्या इसमें ? बतला दीजे, हम भी तो जानें !"
गीत प्राणेश्वर, रवि-तेज को दीपक का दिखलाना क्या ?
वन-यात्रा की बात का मर्म तुम्हें समझाना क्या ? पशु पक्षी क्या, गिरि निर्भर क्या, पवन दौड़ता फिरता है. अखिल विश्व गतिमय, न कहीं भी पलभर की भी स्थिरता है,
बहते जल का गर्त में सड़-सड़ कर सुख पाना क्या ? स्वर्ण पुच्छ-सम पूर्ण असम्भव शान्त वासना भोगों की, कर्म - शून्य नर तेजहीन हो, बनता वसती रोगों की,
हरा-भरा वन, कर्म के पथ का नहीं दीवाना क्या ? मानव तन अनमोल प्राप्त कर कर्म - योग का पाठ पढ़ो, जीवन - नभ में प्रतिदित 'अमर' तेज की ओर बढ़ो,
कर्म-योग की तान विन जीवन वाद्य बजाना क्या ?
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