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पुनर्मिलन वन में मृग शिशु के लिए, जब से गए नृपाल ।
तारा ने पति - विरह का, पाया कष्ट कराल । रानी ने कर्तव्य - विवश हो राजा को भेजा वन में, आँखों देखें दीन प्रजा की दशा, विचारें कुछ मन में। कुछ दिन मुझ से अलग रहें तो स्वयं वासना से छूटें, कर्म - योग में रत हों, बन्धन सभी अविद्या के टें। अमृत - घट पर विष का ढक्कन, तारा का यह जीवन था, ऊपर पत्थर, किन्तु हृदय के अन्दर मृदुतम मक्खन था। भूपति के जाने के पीछे कोमलता ऊपर आई, पतिव्रता के तन पर, मन पर निजपति की चिन्ता छाई ! "निर्जन वन में कहीं भटकते होंगे मेरे प्राणाधार, भूख • प्यास की पीड़ाओं का कैसे सहते होंगे भार ? फल - सेज पर सोने वाले पृथिवी पर सोते होंगे, हा ! हा !! कैसे पुष्प • सुकोमल अंग - अंग दुखते होंगे ! वे दुख भोगें, मैं सुख भोगू, ठीक नहीं मुझको जॅचता, पतिव्रता क्या, पापिन हूँ मैं, भीषण पाप मुझे लगता।" रानी भी व्रत - तपश्चरण में लगी, क्षुधा - तृषा सहती, कभी - कभी तो रूखा - सूखा भोजन खाकर ही रहती ! भूमि - शयन करती है, आधी रात रहे पर जग जातो, पद्मासन से बैठ शान्ति - हित शान्तिनाथ के गुण गाती।
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