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सत्य हरिश्चन्द्र
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स्नेह पाश में जिसके मैंने निज कर्तव्य भुला दीना, दीन प्रजा की सुध बुद्ध भूला, अवनति का दुष्पथ लीना । वही मोहिनी, बनी द्रोहिणी, दम्भ - जाल रचने वाली, अमृत में विष भरा, अरे यह दुनिया है बस मतवाली ।"
पल में चित्र चित्त का बदला - "पापी मन, यह क्या सोचा, पतिव्रता के शुभ - चरित्र पर फेरा क्या गन्दा पोचा । तारा का मन सपने में भी कभी न उत्पथ जा सकता, लाख संकट सहकर भी भाव विरूप न ला सकता ।
लाख
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सूर्य चन्द्र की मर्यादा का भेद भले ही मिट जाए, क्या मजाल जो तारा अपने शील - मार्ग से हट जाए ? संभव है, इस घटना में, हो कोई गूढ़ रहस्य छिपा, भाग्यवती तारा के द्वारा नियति नटी की हो न कृपा ?"
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वन से लौटे तो जनपद की दशा दृष्टि में आई है, शान्त हृदय पर प्रजा व्यथा घनघोर घटा बन छाई है । गाँव- गाँव में तन पर, मन पर बड़ी गरीबी लख पड़ती, दीन प्रजा जीवित होते भी मुर्दों के सदृश सड़ती । आँखों देखा, सुना कान से, शासन की न व्यवस्था है, हरिश्चन्द्र ने समझा तेरे कारण ही दुरवस्था है ॥ " तूने भोग विलासी बन कर निज कर्तव्य भुला डाला, दीन प्रजा को पड़ा, लालची अधिकारी गण से पाला ।
अब न भूल यह होने दूँगा, शासन सूत्र संभालूंगा, कौशल में से भूख, दैन्य, अन्याय, अधर्म निकालूँगा । सूर्यवंश की न्याय पताका अब न कलंकित होवेगी, सत्यव्रत की सन्तति अपनी मर्यादा कब खोवेगी ?"
करते,
पथ में मिलते बाल, वृद्ध, नवयुवकों से बातें पास अयोध्या के आ पहुंचे भव्य - भाव मन में भरते ॥
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