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सत्य हरिश्चन्द्र
राजा हर्षित हुआ देख कर प्रकृति नटी की सुन्दरता, जीवन में कर्तव्य जगा, हट गई भोग की किंकरता !
गीत
रे नगर के कीट नर, कब शान्त वन में आएगा । देख कर शोभा प्रकृति की कब हृदय हरषाएगा ||
आँख दोनों खोल कर कुछ देख ले, कुछ सीख ले । शिष्य बन कुछ दिन प्रकृति का, स्वच्छ जीवन पाएगा ॥
प्राप्त कर सद्गुण न बन पागल प्रतिष्ठा के लिए । जब खिलेगा फूल खुद अलिवृन्द आ मँडराएगा ||
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फूल - फल से युक्त होकर वृक्ष झुक जाते स्वयं । पा के गौरव मान कब तू नम्रता दिखलाएगा ॥
रात दिन अविराम गति से देख झरना बह रहा ।
क्या तू अपने लक्ष्य के प्रति यों उछलता जाएगा ?
दूसरों के हित 'अमर' जल संग्रही सरवर बना । दोन के हित धन लुटाना क्या कभी मन भाएगा ? पक्षाधिक वन पथ में भटका, स्वर्ण पुच्छ क्या मिलना था, यह तो केवल बुद्धि - योग से कर्म - योग में ढलना था । सहस्राधिक मृग - शिशु आँखों के आगे से प्रति दिन निकले, किन्तु न देखा स्वर्ण - हरिण जब, हरिश्चन्द्र खुद ही सँभले ॥
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" मूढ बना है, भला कहीं भी सोने का मृग हो सकता ? अटल प्रकृति का नियम कभी क्या निज मर्यादा खो सकता ? तारा ने यह क्या माया रच मुझको विभ्रम में डाला, कुटिल हृदय है नारी का कुछ दिखता है काला
काला ॥
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