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सत्य हरिश्चन्द्र
हृदय - हीनता की सीमा है, राजा भी क्या मानव है, शासन - दण्ड प्राप्त कर मानव, बनता सचमुच दानव है । लघुतम - सा अपराध कहाँ, ओ कहाँ जिन्दगी का मर्दन, न्याय नहीं, यह सत्ता का है गर्व - भरा ताण्डव - नर्तन |
मेरे दासी - दास मुझे निज प्राणों से भी प्यारे हैं, स्वेद - बिन्दु पर जीवन देते, स्वार्थ दम्भ से न्यारे हैं । अधिक चतुरता दम्भ - युक्त होती है बस - बस क्या लेना, अपना दोष और के शिर पर अच्छा नहीं लगा देना ||"
विस्मय युत हो हरिश्चन्द्र ने कहा - "प्रिय, क्या कहती हो ? मैं दोषी हूँ, कहो कौन से भ्रान्ति सिन्धु में बहती हो ? व्याह - दिवस से तुझे स्नेहवश शिर - आँखों पर रखा है, मैंने तो सर्वस्व निछावर तुझ पर ही कर रखा है ।। "
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तारा बोली - " रहने दीजे, ये चिकनी चुपड़ी बातें, ऊपर के मधु - वर्षण से क्या, मिटी न जो दिल की घातें । यह वैभव, यह सुख - सज्जा, सब कहदूँ प्रेम नहीं होता, सच्चा प्रेम हृदय से होता कटुता के मल को धोता ।
सम्राज्ञी का आसन पाकर मैंने क्या गौरव पाया ? नारी - जीवन के पद पद पर दृढ़ अभेद बंधन छाया । स्वयं आप जो कुछ लाते हैं, वह मैं अपना लेती हैं, पर स्वतंत्र निज मन की गति को नहीं उभरने देती हूँ ।"
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"क्या स्वतंत्र इच्छा है कहिए" हरिश्चन्द्र राजा बोले, रानी ने भी निज पति के हित स्पष्ट भाव मन के खोले । "बीते युग की क्या इच्छाएँ, वर्तमान ही रख लीजे, सत्य स्नेह है, नहीं झूठ है, निश्छल हो दिखला दीजे ।
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