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________________ १० कोमलता का भाव न मन में, फिर क्या सुन्दरता से तन में, - सत्य हरिश्चन्द्र गीत दया विन बावरिया, हीरा जन्म गँवाये, कि पत्थर से दिल को, क्यों ना फूल बनाये ॥ दीन दुखी की सेवा कर ले, पाप - कालिमा अपनी हर ले, · धन - लक्ष्मी का गर्व न करना, आखिर तो सब तजकर मरना, यह जीवन है पाप पुण्य हैं शेष जीवन - तिहुँ जग मंगल गाये ॥ एक कहानी, निशानी, Jain Education International विष बरसाये ॥ परहित क्यों न लुटाये ॥ 'अमर' सत्य समझाये ! राजा ने देखा तो मानस हुआ हर्ष से परि पूरित, बोले मंत्रीश्वर से " अपना कार्य कीजिए अब प्रमुदित | सम्राज्ञी के सिंहासन का आज प्रश्न हल होता है, रूपोचित सत्कार्य हृदय में बीज प्रेम का बोता है । - अगर व्याह करना है तो बस इसी नृपति - सुकुमारी से, वर्ना तो आजन्म रहेंगे हरिश्चन्द्र ब्रह्मचारी से || " मंत्री ने झट जाकर नृप से करी प्रार्थना हर्षित हो, स्वीकृत, निश्चित, विहित प्रणयकृत हुआ सभी सु-स्थिर चित हो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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