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सत्य हरिश्चन्द्र
जब से रोहित पुत्र हुआ, तबसे तो दशा
जो भी था कुछ शेष कर्म-पथ,
कुछ रानी से, कुछ रोहित से,
उससे दृष्टि हटा ली है ।
न्यायालय में कार्यार्थी जन,
बातें करते
रानी को जब पता लगा जन
अपने को ही कारण समझा,
प्रतिदिन शोर मचा जाते ॥
"नारी, क्या कर्तव्य - भ्रष्ट ही,
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पद की दुःख - कहानी का ।
देश - जाति के जीवन में क्या,
राजा की नादानी का ॥
सरस्वती, लक्ष्मी की सखियाँ,
निराली है ।
करती जग में मानव को ?
लक्ष्य भ्रष्ट हो नर ने समझा,
दिन जाते ।
पैदा करती लाघव को ?
१३
यही प्रेम क्या, ऋषि मुनियों ने,
क्या महलों की तितली हैं ?
नहीं प्रेम यह, नीच मोह है,
वे भोगों की पुतली हैं ॥
जिसकी गाई है महिमा ?
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होती है जिससे लघिमा ॥
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