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मति भी सुन्दर,
तन भी सुन्दर, जीवन की हर गति भी कथनी सुन्दर, कृति भी सुन्दर,
सुन्दर,
आस - पास में प्रेम
नौकर - चाकर पर
दोन
-
सत्य हरिश्चन्द्र
गीत
गृह - पत्नी
निज परिजन की मन
की वृष्टि,
समदृष्टि, सृष्टि,
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दुखी पर करुण
-
वह गृहिणी जग बड़ भागन हों, पत्नी प्रेम पुजारन हो ।
गृह
=
भीम भयंकर कष्ट सहे,
किन्तु 'अमर' पति
संग रहे, कदापि कहे,
इक शब्द बुरा न
प्रेम - पुजारन
-
वह स्नेह दया से सावन हो, पत्नी प्रेम पुजारन हो ॥
गृह
-
•
-
"
हो,
भावन हो ॥
वह सजनी, गृह - सुख साधन हो, पत्नो प्रेम पुजारन हो ।
गृह
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और अधिक क्या मंत्री को राजा ने निज मत समझाया, अवसर आने पर पत्नी के वरने का प्रण बतलाया ।
बीते कुछ दिन यों ही, आया मास वसन्त मनोहारी, प्रकृति नटी ने शोभा धारण की अति ही प्यारी - प्यारी ।
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