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सत्य हरिश्चन्द्र
हृदय - कमल में करुणामृत है, कर - कमलों में दानामृत । मुख- मण्डल पर हास्यामृत है, जिह्वा में मधु वचनामृत ॥ दुराचार का नाम नहीं है; सदाचार की अर्चा है। दूर दूर तक "यथा भूपति:तथा प्रजा" की चर्चा है ॥ पर-धन, पर- वनिता पर कोई कभी नहीं है ललचाता । अपने बल - उद्यम पर सवका, जीवन - रथ है गति पाता । कविता की भाषा में कह दूँ, चन्द्र - कला में क्षय केवल । दण्ड वृद्ध का आलम्बन या, कुम्भकार का है संबल ॥ जनता के मन में न कालिमा, कृष्ण भ्रमर हैं फूलों पर । घृणा किसी को नही किसी से, घृणा पाप के कूलों पर ।।
चंचलता सरिता लहरों में, मणिमाला में बन्धन है । सर्प जाति में मात वक्रिमा,
सरल प्रकृति से जन-मन है ॥
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