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सत्य हरिश्चन्द्र
वन • उपवन में, तरु - माला पर सुन्दर हरियाली छाई, शीतल मन्द सुगन्ध पवन में अभिनव मादकता आई ॥
बन - यात्रा को चले हमारे कौशल के अधिनायक भी, आता है अब समय नृपति का जीवन - रुचि-निर्मायक भी।
कौशल की पश्चिम सीमा पर शोणप्रस्थ इक पुरवर है, देवरात राजा हैं, जिनको पाकर आनन्द घर - घर है । राजा हरिश्चन्द्र ने डेरा डाला वहीं सरोवर पर, देख - देख प्रमुदित होते हैं, शोभा उपवन की सुन्दर । राजकुमारी देवरात की श्रेष्ठ सुन्दरी श्री तारा, निज सखियों के साथ सरोवर आई शुभ - स्नेहागारा। पुष्पहार रचकर नाना - विधि क्रीड़ा - कौतुक करती है, स्फटिक - स्वच्छ गंगाधारा-सी राजा का मन हरती है।
वद्धा एक सरोवर - तट पर जल - घट भरने आती है, जलभर कर चलने लगती है, कम्पित हो गिर जाती है ।
प्रस्तर - पथ पर लगी चोट अति, करती है करुण - क्रन्दन, राजकुमारी तारा भग कर आई झटपट सुन रोदन ।
दया - भाव से, स्नेह - भाव से, बुढ़िया की परिचर्या की, स्वस्थ चित्त हो बुढ़िया ने भी शुभाशीष की वर्षा की।
"राजकुमारी ! नहीं मानुषी, तू है देवी सर्वोत्तम, धन्य भाग्य हैं शोण - प्रजा के बरस रहा है शम पर शम । जैसी है वैसा ही तू पति भी सर्वोतम पाना, महिमान्वित हो स्वर्णासन पर तू सम्राज्ञी कहलाना ॥"
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