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एकाङ्की नाटक
मृणालवती-प्रणय
लेखक, श्रीयुत सूर्यनारायण व्यास
बहन,
[पात्र
मृणालवती-तुम्हारा घमंड दूर करने के लिए ही मेरा मुंज—मालव का प्रतापी राजा,
इस समय यहाँ आना हुआ है। मृणालवती-तैलंगण के राजा तैलप की विधवा मुंज-(आश्चर्य से) अोह ! मेरा घमंड दूर करने को ही
इस समय आप पधारी हैं ? खूब ! वीरबाहु-मृणालवती का सैनिक,
मृणालवती-हाँ, समर-क्षेत्र में जीतकर विजय की वरसमय-संध्याकाल, स्थल तैलंगण से राज-विहार के माल धारण करनेवाले अपने विजयी भाई की तरफ़ नीचे का कारागृह।]
से तुम्हारा घमंड दूर करने के लिए आई हूँ। की ज (हाथ में बेड़ियों से जकड़ा मुंज-(क्रोध से) यह तुम क्या बक रही हो मृणालवती ?
हुआ इधर-उधर फिर रहा छल-कपट से विजय प्राप्त करना ही क्या क्षत्रियों है।)-विधिगति विचित्र है। का लक्षण है ? छल-कपट से मैं कैद में डाला गया मालवा के राजसिंहासन पर हूँ। अपने भाई की ऐसी ही बहादुरी पर गर्व कर बैठनेवाला और पृथ्वी का प्यारा राजा कहलानेवाला, मृणालवती-जो कुछ समझो, मगर इस समय तो तुम मेरे
अाज एक सप्ताह से इस देश कैदी हो न ? इस समय तो तुम मेरे जीते हुए हो न ? में पड़ा हुआ है ! उस समय एक शब्द मुख से निकलते मुंज-नहीं, नहीं। ऐसा समझती हो तो तुम्हारी भूल है । ही हज़ारों सेवक हाज़िर हो जाते थे और आज इस समय तुम्हारे पिशाच हृदय-भ्राता तैलप ने मुझे बन्दी नहीं मेरे शब्द का प्रत्युत्तर ये जड़ दीवारें अट्टहास करके-जैसे बनाया। मुझे बन्दी बनानेवाला तो वीर भिल्लमदेव मेरी यह दशा देखकर खुश हो रही हों, देती हैं। दैव ! है। यह मालवपति अपने जीवन-काल में यह पहली तेरी विचित्र गति है! जिस हाथ में चमकती तलवार शोभा बार ही भिल्लमदेव-द्वारा बन्दी किया गया है । धन्य है देती थी, उसी हाथ में श्राज लोह-शृंखला शोभा दे रही उसकी वीरता को और धन्य है उसके गर्म रक्त को है। (मृणालवती प्रवेश करती है।) कौन ? मृणालवती ? और उसकी तेजस्विनी तलवार को ! इस समय मेरे निवास में ?
मृणालवती-किन्तु मुंज, भिल्लम तो हमारा सरदार है। मृणालवती-हाँ, मुंज ! वीर तैलप की बहन, इस समय वह तो हमारा नमक खाता है, इससे उसकी हर एक तुम्हारे सामने खड़ी है।
विजय पर हमारा पूर्ण अधिकार है-हमारी सम्पूर्ण मुंज-भाने का प्रयोजन ?
सत्ता है। मृणालवती-लोगों के मुख से सुनती थी कि मुंज बड़ा मुंज-किन्तु तुम्हारा नमक खाकर वह तुम्हारे विश्वासघाती
बुद्धिमान् है, किन्तु तुम्हारे प्रश्न से ज्ञात होता है कि भाई की तरह नीच नहीं हुआ। यह जानकर मैं लोगों का कहना झूठ था। भला काई बिना प्रयोजन सहज ही अपनी आत्मा का शान्ति देता हूँ कि मुंज के अाता है ?
कैद में डाला तो गया, किन्तु वीर के हाथ ही, मुंज----अच्छा ! हाँ, हाँ, तुमने मेरा मूल्य तो ठीक आँका। क्षत्रियत्व का लजानेवाले कायर-डरपोक मनुष्य के . अब अपने आने के प्रयोजन का प्रकरण तो खोलो। हाथ से कैद में नहीं गया।
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