________________
· सरस्वती
[भाग ३६
हम लोग योरप और अमरीका एवं जापान जाकर ही है। क्योंकि उस दशा में उसको अपनी हर वस्तु में उनकी शिक्षाप्रणालियों से प्रभावित होते हैं और वैसा ही दोष ही दोष और दूसरों की हेय वस्तु तक में गुण ही गुण
आदर्श यहाँ भी स्थापित करना चाहते हैं। हमारा यह दिखाई देते हैं। हम लोगों की आज यही दशा है। हम दृष्टिकोण ग़लत है, हमारा अपना अादर्श होना चाहिए, हर एक बात में-खान-पान में, बोल-चाल में, आचारजिससे जिस प्रकार हम विदेशों की प्रणाली पर मोहित होते व्यवहार में एवं शिक्षा में हम परमुखापेक्षी हैं और दूसरों हैं उसी प्रकार विदेशी लोग हमारी प्रणाली पर मोहित हों। की वस्तुओं को अपना आदर्श समझने लग गये हैं। अन्धाधुन्ध का अनुकरण कल्याणकारक नहीं हो सकता। विज्ञान की बात छोड़ दीजिए । हमारे विश्वविद्यालयों के अनुकरण होना चाहिए तात्त्विक बातों का बाह्याडम्बर स्नातक आज दर्शन-शास्त्र, ज्योतिष-शास्त्र, यहाँ तक कि का नहीं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हिन्दी और संस्कृत में भी विशेषता प्राप्त करने के लिए हम पुरुषत्व एवं नारीत्व दोनों में अपना आदर्श इंग्लेंड आदि देशों को जाते हैं और वहाँ के विद्वानों-द्वारा रक्खें।
हिन्दी-संस्कृत तथा दर्शन में परीक्षित होकर उपाधि___ दूसरों की रहन-सहन एवं दूसरों के प्राचार-विचार पर विभूषित होकर अपने को धन्य समझते हैं । यह हमारी मोहित होना किसी संस्कृतिशील जाति के लिए अनिष्टकारक दुर्दशा का कितना दयनीय चित्र है।
-
सरल समस्या
लेखक, श्रीयुत जीवन, एम० ए० अगणित सपने ले लेकर,
जीवन की अन्तिम घड़ियों, रवि नित प्रति मुसकाता है।
से पहले ही क्षय होती ।। झूठे सपनों की नभ में,
जीवन तो मधुमय होता, नित चिता जला जाता है ।
पर मृत्यु सुधा ही होती। राकापति भी आता है,
सुख जीना अथवा मरना-- दल-बल से साज सजाकर ।
यह सरल समस्या होती ।। अपने मिटने से पहले, हम जिसे आज डरते हैं,
जाता है सभी मिटाकर । करते उसकी अगवानी। ये जीवन की अरमाने,
'जीवन' तेरा भी जीवन, यी हा ! ऐसी ही होती।
बन जाता अमर कहानी ।।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com