________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ON AN
-6
अध्यायों में विषयों का प्रतिपादन साधारणतः निम्न प्रकार से हुआ है। अध्याय
(सूत्र-169) वर्णोत्पत्ति, अध्ययन विधि, संज्ञा- परिभाषा और वर्णो के उच्चारण- स्थान । (सूत्र-653) स्वर के नियम। (सूत्र- 151) सन्धि के नियम। (सूत्र- 198) सन्धि, पदपाठ एवं क्रमपाठ के नियम। (सूत्र-46)- समास में दो पदों के पृथक् ग्रहण को "अवग्रह" कहते हैं। इस अध्याय में अवग्रह के नियम बताए हैं। (सूत्र-31) आख्यात, (क्रियापद) और उपसर्ग के नियम।
(सूत्र-12) परिग्रह के नियम । परिग्रह का अर्थ है मध्य में इति शब्द रख कर पद को दोहराना । - 8 (सूत्र-62) । वर्ण समाम्नाय, अर्थात् वर्णमाला, अध्ययन विधि, वर्णों के देवता, पदचतुष्टय एवं
उनके गोत्र तथा देवता इन विषयों का विवरण। कात्यायन के प्रातिशाख्य में परिभाषा, स्वर तथा संस्कार इन तीन विषयों का विस्तृत विवेचन होने के कारण उन्हें "स्वर-संस्कार-प्रतिष्ठापयिता' उपाधि दी गई है। इसमें काण्व, काश्यप, शाकटायन, शाकल्य एवं शौनक आदि दस आचार्यो के मत उद्धृत किए हैं। पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में इस प्रातिशाख्य की परिभाषा एवं कुछ सूत्रों का शब्दशः अंगीकार किया है। अतः इस का रचनाकाल पाणिनि से पूर्व अर्थात् ई.पू. आठवी शती तक माना जाता है।
कात्यायनकृत वाजसनेयी प्रातिशाख्य पर उवटकृत "मातृवेद" और अनन्तभट्ट कृत "पदार्थप्रकाशक" नामक दो व्याख्याएं प्रकाशित हुई हैं। इन के अतिरिक्त (1) "प्रतिज्ञासूत्र" और (2) भाषिक सूत्र नामक दो परिशिष्ट सूत्र, व्याख्यासहित प्रकाशित हुए है।
तैत्तिरीय प्रातिशाख्य - कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता का यह सूत्रमय प्रातिशाख्य प्रश्न नामक दो खंडों में विभक्त है। प्रत्येक खंड में 12 अध्याय हैं। प्रतिपाद्य विशय अन्य प्रातिशाख्यें जैसे ही हैं केवल उदाहरण तैत्तिरीय संहिता से दिए हैं।
इस प्रातिशाख्य पर माहिषेय कृत "पदक्रमसदन" नामक प्राचीन भाष्य है। प्रातिशाख्यों का विषय होता है प्रकृतिपाठ (अर्थात् संहितापाठ, पदपाठ और क्रमपाठ)। इस दृष्टि से माहिषेय भाष्य का "पद-क्रमसदन"- नाम अन्वर्थक है। दूसरा सोमयाजी कृत "त्रिभाष्यरत्न" और तीसरा है गोपालयज्वा का "वैदिकाभरण'।
सामवेद के पुष्पसूत्र (नामान्तर-फुल्लसूत्र) और ऋक्तंत्र (अथवा ऋक्तंत्र व्याकरण) नामक सूत्रबद्ध प्रातिशाख्य उपलब्ध है। पुष्पसूत्र का संबंध गानसंहिता से है अतः इसमें उन स्थलों का विशेष निर्देश होता है, जिनमें "स्तोभ" का विधान या अपवाद होता है। हरदत्तविरचित सामवेदीय सर्वानुक्रमणी के अनुसार, सूत्रकार वररुचि को पुष्पसूत्र के रचयिता माना गया है। इस वररुचि के संबंध में कोई जानकारी नहीं है। इस ग्रंथ के दस प्रपाठकों में से, पंचम प्रपाठक से उपाध्याय अजातशत्रु की व्याख्या उपलब्ध है।
दूसरा सामवेदीय प्रातिशख्य, ऋतंत्र के रचयिता शाकटायन का है, जिनका निर्देश यास्क तथा पाणिनि ने अपने ग्रंथों में किया है। इसके पांच प्रपाठकों में कुल सूत्रसंख्या दो सौ अस्सी है। कुछ विद्वानों ने औदब्रजि को ऋक्तंत्र का रचयिता माना है। समन्वय की दृष्टि से औदवजि यह व्यक्ति का नाम और शाकटायन गोत्र का नाम माना जा सकता है। अथर्ववेदीय प्रातिशाख्य - (1) चतुराध्यायिका- यह सब से प्राचीन अथर्ववेदीय प्रातिशाख्य माना गया है। सन 1862 में व्हिटनी द्वारा इसका संपादन होकर, जर्नल ऑफ अमेरिकन ओरिएंटल सोसायटी के 7 वें खंड में यह प्रकाशित हुआ। व्हिट्नी की प्रति में शौनक का नाम निर्दिष्ट होने के कारण, उन्होंने इसे "शौनकीया चतुराध्यायिका" नाम से प्रकाशित किया। परंतु वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय तथा उज्जयिनी संग्रह में इसी ग्रंथ का नाम “कौत्सव्याकरण" मिलता है। इस कारण कौत्स को इस के रचयिता मानते हैं। चार अध्यायों में अन्य प्रातिशाख्यों के समान विषयों का प्रतिपादन इस में मिलता है।
अथर्ववेद प्रातिशाख्य- सन 1940 में डॉ. सूर्यकान्त शास्त्री द्वारा यह ग्रंथ प्रकाशित हुआ। इस ग्रंथ के लघु और बृहत् दो पाठ मिलते हैं। अन्य प्रातिशाख्यों में मिलनेवाले पारिभाषिक शब्दों का तथा शाकल्य के अतिरिक्त अन्य आचार्यों के नामों का निर्देश इस ग्रंथ में नहीं मिलता। अर्थवेद के मूल पाठ को निश्चित समझने में इन दोनों प्रातिशाख्यों से सहायता मिलती है।
6 व्याकरण वाङ्मय की रूपरेखा
"मुखं व्याकरणं स्मृतम्" इस वचन के अनुसार व्याकरण को वेदपुरुष का मुख अर्थात मुख्य अंग कहते है। भगवान पतंजलि कहते हैं कि- "प्रधानं हि षट्सु अंमेषु व्याकरणम्"- वेदों के छह अंगों में व्याकरण प्रधान अंग है।
गोपथब्राह्मण मुंडकोपनिषद्, रामायण, महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों में शब्दशास्त्र के अर्थ में व्याकरण शब्द का प्रयोग
44/संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
For Private and Personal Use Only