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हैं। इस संप्रदाय का स्वरूप एकेश्वरवादी है जिसमें ब्रह्मा, विष्णु रुद्र (त्रैमूर्ति) के अतिरिक्त महाशिव को परमेश्वर माना जाता है। वीरशैव दर्शन के अनुसार सृष्टि का स्वरूप द्विविध है- (1) प्राकृत (ब्रह्मनिर्मित) और (2) अप्राकृत (शिवनिर्मिति) । भगवान् शिवद्वारा जिन का निर्माण हुआ वे नन्दी, भंगी, रेणुक, दारुक आदि मायातीत होने के कारण अप्राकृत हैं। ज्ञानशक्ति
और क्रियाशक्ति से युक्त चैतन्य ही शिवतत्त्व है जो चिदचिद्विशिष्ट अद्वैतस्वरूप है। वीरशैव संप्रदाय के इस प्रकार के तत्त्वज्ञान को "सगुणब्रह्मवाद"- कहा जा सकता है। पदार्थत्रय- पशु, पाश और पति-तीन पदार्थ हैं। नित्यमुक्त, आधिकारिक,बद्ध और केवल जड इस प्रकार के पशु (जीवमात्र) के उच्चनीच अवस्था के अनुसार भेद होते हैं। त्रिविध दीक्षा- साधक को दीक्षा देने का अधिकारी उसका गुरु होता है। वीरशैव संप्रदाय में 21 प्रकार की दीक्षाएं सम्मत हैं जिनमें वेधदीक्षा, मंत्रदीक्षा और क्रियादीक्षा प्रमुख मानी जाती हैं। चतुर्विध शैव- उपासना की उत्कटता के अनुसार शैवों के चार प्रकार माने जाते हैं:- (1) सामान्य शैव- जो स्वयंभू, आर्ष, दैव और मानुष शिवलिंगो का यदृच्छया दर्शन होने पर पूजन करता है। (2) मिश्र शैव- शिवपंचायतन (शिव, अंबिका, शालिग्राम, गणपति और सूर्य) की नित्य पूजा करने वाला। (3) शुद्ध शैव- मंत्र, तंत्र, मुद्रा, न्यास, आवाहन, विसर्जन को ठीक जानते हुए, दीक्षा ग्रहण कर, परहितार्थ प्रतिष्ठित शिवलिंगों की पूजा करने वाला। (4) वीर शैव - दीर्घव्रत और उपवास न करते हुए केवल शिवलिंग की आराधना द्वारा मुक्ति प्राप्त करने वाला। वीर शैव के तीन प्रकार:- (1) सामान्य- जो जंगम गुरु और शिवलिंग के अतिरिक्त अन्य देवता की पूजा नहीं करता। (2) विशेषअष्टावर्ण (गुरु, लिंग, जंगम, विभूति, रूद्राक्ष, चरणतीर्थ, प्रसाद और मंत्र) से सम्पन्न, और कर्मयज्ञादि पंचयज्ञ करने वाला। (3) निराभारी वीरशैव - वर्ण-आश्रम का त्याग और सर्वत्र संचार करते हुए उपदेश देने वाला योगी। विशेष वीरशैव के पंचयज्ञ- (1) कर्मयज्ञ (नित्यशिवार्चन), (2) तपोयज्ञ (शरीरशोषण), (3) जपयज्ञ (शिवपंचाक्षर, प्रणव और रुद्रसूक्त का जप), (4) ध्यानयज्ञ और (5) ज्ञानयज्ञ - (शैवागम का श्रवण-मनन)। ।
वीरशैव सम्प्रदाय में शिवलिंग का नितान्त महत्त्व माना गया है। अतः इस सम्प्रदाय को लिंगायत संप्रदाय कहते हैं। लिंगायत लोग गुरुद्वारा प्राप्त शिवलिंग शरीरपर धारण करते हैं और लिंगपूजन बिना वे जल-अन्नादि ग्रहण नहीं करते।
ई-11 वीं शताब्दी मे बसवेश्वर द्वारा कर्नाटक में वीरशैव संप्रदाय का विशेष प्रचार हुआ। बसवेश्वर इस संप्रदाय के महान सुधारक एवं प्रचारक थे। इन का कार्यक्षेत्र कर्नाटक में ही होने के कारण कन्नड भाषा में संप्रदायनिष्ठ वाङ्मय प्रभूत मात्रा में निर्माण हुआ। स्वयं बसवेश्वर, हरीश्वर (या हरिहर), राघवांक, केरेयपद्मरस, पालकुरिके सोम, भीमकवि, जैसे लेखकों का साहित्य संप्रदाय में मान्यताप्राप्त है। इस के अतिरिक्त संस्कृत में शैवागम नामक 28 ग्रंथ, शिवगीता, श्रुतिसारभाष्य, सोमनाथभाष्य, रेणुकभाष्य, शिवाद्वैतमंजरी, सिद्धान्तशिखामणि, वीरशैवचिन्तामणि, वीरमाहेश्वराचारसंग्रह, वीरशैवाचारकौस्तुभ, इत्यादि ग्रंथों का विशेष महत्त्व है। भगवान व्यास ने ब्रह्मसूत्र में शिवलिंग का ही महत्त्व वर्णन किया है। यह विचार नीलकण्ठभाष्य तथा एकरेणुकभाष्य में प्रतिपादन किया है। इस संप्रदाय के अनुसार चारों वेदों की उत्पत्ति शंकरजी के निःश्वसितों से होने के कारण वेद तथा उपनिषद, शैवपुराण वाङ्मय और वेदानुकूल स्मृतिग्रंथ प्रमाण माने जाते हैं।
(इ) काश्मीरी शैवमत शैवमत की एक परंपरा काश्मीर में प्रचलित हुई जिसके प्रवर्तकों में दुर्वासा, त्र्यंबकादित्य, संगमादित्य, सोमानन्द इत्यादि नाम उल्लिखित हैं। इस शैव दर्शन का उदयकाल तृतीय शती माना जाता है। सोमानन्द का समय ई. 9 वीं शती माना जाता है। इन के समसामयिक वसुगुप्त, तथा कल्लट का कार्य भी प्रस्तुत दर्शन की परंपरा में महत्त्व रखता है। सोमानंद के शिष्य उत्पलदेव (ई. 9 वीं शती), उनके शिष्य लक्ष्मणगुप्त और उनके शिष्य अभिनवगुप्ताचार्य (ई. 10-11 वीं शती) एक अलौकिक विद्वान् थे। ई. 11 वीं शती में अभिनवगुप्ताचार्य के शिष्य क्षेमराज ने इस मत की स्थापना में सहयोग दिया।
काश्मीरी शैवमत का निर्देश प्रज्ञभिज्ञादर्शन, स्पन्दशास्त्र, षडर्धशास्त्र, षङर्थक्रमविज्ञान, त्रिकदर्शन इत्यादि नामों से होता है।
प्रज्ञभिज्ञादर्शन- अज्ञान की निवृत्ति के अनन्तर, जीव को गुरुवचन से ज्यों ही यह ज्ञान होता है कि मैं शिव हूँ". त्यों ही उसे तुरंत आत्मस्वरूप (शिवत्व) का साक्षात्कार हो जाता है। "प्रत्यभिज्ञा" इस पारिभाषिक शब्द का आशय "सोऽयं देवदत्तः" याने कुछ समय पूर्व जिस देवदत्त को देखा था, वही यह देवदत्त है, इस उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाता है। इसी प्रकार की प्रत्यभिज्ञा जीव के अंतःकरण में शिव के प्रति श्रवणादि साधन एवं गुरु का उपदेश के कारण उत्पन्न होती है। प्रत्यभिज्ञा सिद्धान्त के प्रतिष्ठापक ग्रन्थों में सोमानन्द के शिष्य उत्पलदेवकृत ईश्वर-प्रत्यभिज्ञाकारिका (जिसे सूत्र कहते हैं), अभिनव-गुप्ताचार्यकृत 180/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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