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संवर्त यज्ञकर्ता रहे होंगे। ऋग्वेद में यज्ञकर्ता के रूप में गुरुगोविंदसिंहचरित नामक आपके काव्यग्रंथ को साहित्य अकादमी अन्यत्र भी उनका उल्लेख है (8.54.2)। अपने भाई बृहस्पति का पुरस्कार प्राप्त हुआ। डा. सत्यव्रत शास्त्री ने विदेशी में से आपकी स्पर्धा चलती थी। बृहस्पति ने मरुत्त का यज्ञ भी अध्यापन कार्य किया है। आप जगन्नाथपुरी संस्कृत विद्यापीठ अधूरा छोड़ दिया था। उसे आप ने पूरा किया। इस यज्ञ में उपकुलपति थे। में अग्नि को ही जला डालने की धमकी आपने दी थी।
सत्यव्रत सामश्रमी - सफल पत्रकार और वैदिक वाङ्मय के आप महान तपस्वी थे। जहां आपने तप किया उसे संवर्ततापी जाता। वाराणसी में रहते हए इन्होंने "प्रत्रकलमनन्दिनी" नामक कहा जाने लगा।
संस्कृत मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया। बाद में कलकत्ता सकलकीर्ति - जन्म-राजस्थान में, 1386 ई. में। पिता-कर्णसिंह । में वैदिक वाङ्मय से संबंधित "उषा" नामक पत्रिका का माता-शोभा। जाति-हूंवड। निवास-अणहिलपुर पट्टन। जन्म सम्पादन किया। इस पत्र की ख्याति विदेशों में भी थी। नाम-पूर्णसिंह। 14 वर्ष की अवस्था में विवाहित और 18 वैदिक साहित्य में शोधानुशीलन का प्रारंभ इन्हीं के प्रयासों वर्ष की अवस्था में दीक्षित। दीक्षागुरु-भट्टारक पद्मनन्दि। 34 का फल है। इनके द्वारा रचित "कन्याविवाहकालः" तथा वें वर्ष में आचार्यपद की प्राप्ति । बागड और गुजरात कार्यक्षेत्र । समुद्रयात्रा, जीवगतिः आदि निबंध मौलिक अनुसन्धान से बलात्कारगण ईडर शाखा के संस्थापक। वि.सं. 1482 में ओतप्रोत हैं। अक्षरतंत्र, आयब्राह्मणः, साम-प्रातिशाख्य, गलियाकोट में भट्टारक-गद्दी के संस्थापक। प्रतिष्ठाचार्य। स्थिति नारदीयशिक्षा आदि समालोचनाप्रधान ग्रंथों की आपने रचना की है। 56 वर्ष । रचनाएं- 1) शांतिनाथचरित (16 अधिकार व 3475 सदाक्षर - अपरनाम-कविकुंजर। अल्प आयु में ही मृत्यु (ई. पद्य), 2) वर्धमानचरित (19 सर्ग), 3) मल्लिनाथचरित (7
1614 से 1634)। इस अत्यल्प जीवन-काल में ही समृद्ध सर्ग-874 श्लोक), 4) यशोधरचरित (8 सर्ग), 5) साहित्य-निर्मिति की। रचनाएं- अम्बाशतक, कविकर्णरसायन और धन्यकुमारचरित (7 सर्ग), 6) सुकुमालचरित (9 सर्ग), 7)
रत्नावलीभद्रस्तवः । आप कर्नाटक के राजा चिकदेव के आश्रित थे। सुदर्शनचरित (8 परिच्छेद), 8) श्रीपालचरित (7 सर्ग), 9)
सदाजी - आपने सन् 1825 में “साहित्यमंजूषा" नामक मूलाचारप्रदीप (12 अधिकार), 10) प्रश्नोत्तरोपासकाचार (24
साहित्य-शास्त्रनिष्ठ काव्य की रचना की। इसमें शिवाजी का परिच्छेद), 11) आदिपुराण (20 सर्ग), 12) उत्तरपुराण (15
चरित्र तथा भोसले-वंश का इतिहास वर्णित है। अधिकार), 13) सद्भाषितावली (389 पद्य), 14)
सदानंद योगीन्द्र - ई. 16 वीं सदी। वेदान्तसार नामक ग्रंथ पार्श्वनाथपुराण (23 सर्ग), 15) सिद्धान्तसार-दीपक (16
के कर्ता। अत्यंत सरल होने से ग्रंथ लोकप्रिय है। अधिकार), 16) व्रतकथाकोश, 17) पुराणसार-संग्रह, 18)
वेदान्तशास्त्र-सिद्धान्त, सारसंग्रह एवं स्वरूपनिर्णय नामक ग्रंथ कर्मविपाक, 19) तत्त्वार्थसारदीपक (12 अध्याय) और
भी आपने लिखे हैं। परमात्मराजस्तोत्र। राजस्थानी भाषा में भी इनके 8 ग्रंथ हैं। सकलभूषण - मूलसंघ-स्थित नन्दिसंघ और सरस्वती गच्छ। सदाशिव - ई. 18 वीं शती। उत्कल प्रदेश के धारकोटे के भट्टारक विजय-कीर्ति के प्रशिष्य, म. शुभचन्द्र के शिष्य नरेश के राजपुरोहित। "कविरत्न" की उपाधि से विभूषत । एवं म. सुमतिकीर्ति के गुरुभ्राता। समय-ई. 17 वीं शती। वृत्ति वैष्णव । “प्रमुदित-गोविन्द" नामक काव्य के प्रणेता। रचनाएं-उपदेश रत्नमाला (18 अध्याय, 3383 पद्य। वि.सं. सदाशिव दीक्षित (मखी) - ई. 18 वीं शती। भारद्वाज 1627) तथा मल्लिनाथचरित्र।
गोत्री । पिता-चोक्कनाथ, माता-मीनाक्षी । संन्यास ग्रहण । आध्यात्मिक सत्यव्रत - ई. 20 वीं शती। मुम्बई-निवासी। शैशव से ही काव्यरचना आत्मविद्याविलास तथा 6 सर्गों का “गीतसुन्दर" मातृपितृहीन। 14 वर्ष की आयु में आर्य-विद्या-सभा द्वारा मुंबई (सोमसुन्दर विषयक भक्तिगीत) । त्रावणकोर में रामवर्मा कार्तिक में संचालित गुरुकुल में मायाशंकर के आचार्यत्व में अध्ययन । (ई. 1755-98) के आश्रय में रहकर रचना- रामवर्म-यशोभूषणम्। सन् 1926 में वेदविशारद । अध्यापन तथा आर्यधर्म के प्रचार इनके अतिरिक्त 'वसुलक्ष्मीकल्याण' और लक्ष्मीकल्याण नामक में रत। मेधाव्रत शास्त्री से संस्कृत-लेखन की प्रेरणा। दो नाटकों के भी प्रणेता। "महर्षि-चरितामृत" नामक नाटक के प्रणेता।
सनातन गोस्वामी - समय- 1490 से 1591 ई.। रूप सत्यव्रत शास्त्री - ई. 20 वीं शती। "नपुंसकलिंगस्य गोस्वामी के बड़े भाई, किन्तु अपने छोटे भाई के बाद इन्होंने मोक्षप्राप्तिः" नामक एक लघु रूपक के प्रणेता।
चैतन्य महाप्रभु से दीक्षा ली। षट् गोस्वामियों में से एक। ये सत्यव्रतशास्त्री (डॉ.) - दिल्ली विश्वविद्यालय के भी बंगाल के नवाब के ऊंचे अधिकारी थे किन्तु उस पद संस्कृताध्यापक । रचना-श्रीबोधिसत्व-चरितम्। एक सहस्र श्लोकों को छोड़ इन्होंने भगवद्भक्ति को ही अपना जीवन-व्रत बना के इस ग्रंथ में भगवान बुद्ध के पूर्वजन्म की कथाएं हैं। यह लिया। महाप्रभु की आज्ञा से ये वृंदावन में ही रहते थे। कथाएं मूल पाली जातक कथाओं पर आधारित हैं। किन्तु प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन से विमुख होने के कारण एक
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 481
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