Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 01
Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr
Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad

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Page 505
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोमेश्वर - ई. 12 वीं शती। विक्रमादित्य के बाद 1126 ई. में कल्याणी के राजपद की प्राप्ति। चतुरस्रविद्वत्ता के कारण 'सर्वज्ञभूप' की उपाधि प्राप्त। मानसोल्लास अथवा अभिलषितार्थ-चिंतामणि नामक कोशग्रंथ के लेखक। सोमेश्वर दत्त - ई. 13 वीं शती। गुजरात के निवासी। इन्होंने 'कीर्तिकौमुदी' और 'सुरथोत्सव' नामक दो महाकाव्यों की रचना की है। 'कीर्तिकौमुदी' में गुजरात के राजा वीरधवल के अमात्य वस्तुपाल की प्रशस्ति है, और सुरथोत्सव में दुर्गासप्तशती के राजा सुरथ का चरित्र- वर्णन है। सोमेश्वर भट्ट राणक - ई. 12 शती। पिता माधव भट्ट। इन्होंने तंत्रवार्तिक. ग्रंथ पर न्यायसुधा, सर्वोपकारिणी, सर्वनिबंधकारिणी अथवा राणक नामक विस्तृत भाष्य लिखा है। इन्हें 'मीमांसक राणक' के नाम से जाना जाता है। इनका दूसरा ग्रंथ है तंत्रसार जो अब तक अप्रकाशित है। सोवनी, वेंकटेश वामन - ई.स. 1882 से 1925 तक। शिवाजी महाराज के चरित्र पर काव्यमय 'शिवावतार-प्रबंध' के कर्ता। मेरठ तथा प्रयाग में संस्कृताध्यापक। अन्य रचनाएं (1) इन्द्रद्युम्राभ्युदय (आध्यात्मिक काव्य) (2) दिव्यप्रबंध, (3) ईशलहरी और (4) रामचन्द्रोदय (4 सर्ग)। सौचीक - ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 79 वें तथा 80 वें सूक्त के द्रष्टा। इन सूक्तों की देवता वैश्वानर अग्नि है। इनकी एक ऋचा इस प्रकार है - गुहा शिरो निहितमृधगक्षी असिन्वन्नत्ति जिह्वया वनानि । अत्राण्यस्मै पड्भिः सरूं भरन्त्युत्तानहस्ता नमसाधि विक्षु ।। अर्थात्- वैश्वानर का मस्तक भले ही गुफा में गुप्त स्थान पर हो, फिर भी नेत्र भिन्नभिन्न दिशाओं की ओर देखते रहते हैं। वह अपनी जीभ से वन-के-वन निगल जाता है। इसीलिये ऋत्विज अपने हाथ पसारकर और नम्र बनकर इस मानव-लोक के खाद्य-पदार्थ उसके सामने सत्वर रख देते हैं। सौती - 'महाभारत' के रचयिता। ये लोमहर्षण के पुत्र थे तथा इनका पूर्व नाम उग्रश्रवा था। इन्होंने 'भारत' की श्लोक संख्या तीस हजार से बढाकर 1 लाख तक पहुंचा दी, और उसे महाभारत बना दिया। इस सन्दर्भ में एक आख्यायिका यह बतलायी जाती है कि नैमिष्यारण्य में एकत्रित शौनक आदि ऋषियों ने एक प्रदीर्घ सत्र में इन्हें आमंत्रित कर भारत-कथा सुनाने का निवेदन किया। उन्होंने अपने अनेक आख्यानों और उपाख्यानों द्वारा मूल भारत-कथा को बृहत् स्वरूप प्रदान किया। स्कन्द - ई. 7 वीं शती। स्कंदमहेश्वर तथा स्कंदस्वामी के नामों से प्रसिद्ध । सब से प्राचीन ऋगभाष्यकार। पिता- भर्वध्रुव। सायण, देवराज और आत्मानन्द, आचार्य स्कन्दस्वामी को अपने-अपने भाष्य में उद्धृत करते हैं। स्कन्दस्वामी, नारायण और उद्गीथ इन तीन आचार्यों ने मिलकर ऋग्भाष्य की रचना की थी। स्कन्द-भाष्य पहले भाग पर, नारायण-भाष्य मध्य भाग पर और उद्गीथ-भाष्य अन्तिम भाग पर है। स्कन्दस्वामी के गुरु हरिस्वामी थे। उन्होंने शतपथ-भाष्य की रचना की थी। स्कन्दस्वामी का ऋग्भाष्य याज्ञिक-मतानुसारी है। इसके प्रत्येक सूक्त के भाष्य के प्रारंभ में प्राचीन अनुक्रमणियों के ऋषि और देवता के बोध कराने वाले श्लोकार्ध वा श्लोकों के चरण पाये जाते हैं। शायद यह अनुक्रमणियां शौनक-प्रणीत होंगी। स्कन्द, वेदार्थ के बोध में छन्दोज्ञान को उपयुक्त मानते हैं। इस भाष्य की यह विशेषता माननी चाहिये। निघण्टु, निरुक्त, बृहद्देवता शौनकोक्त वचनों और ब्राह्मण-ग्रंथों के प्रमाणों से यह भाष्य सुभूषित है। सायण का ऋग्वेदभाष्य बहुत स्थलों में इस भाष्य की छायामात्र है। प्रस्तुत भाष्यग्रंथ, अभी तक खण्ड रूप में उपलब्ध हुआ है। निरुक्त-टीकाकार महेश्वर, स्कन्द-स्वामी से संबंधित होंगे। इसी कारण 'स्कन्द-महेश्वर' नाम से उनका परिचय दिया जाता है। स्कंदस्वामी का ऋग्भाष्य अत्यंत विशद है, तथा वैदिक साहित्य में उसका महत्त्वपूर्ण स्थान है किन्तु यह भाष्य अधूरा अर्थात् चौथे अष्टक तक ही उपलब्ध हो सका है। भाष्य के अन्त में स्कंदस्वामी ने आत्मपरिचय दिया है। उसके अनुसार ये गुजरात की राजधानी वलभी के निवासी एवं हर्ष तथा बाणभट्ट के समकालीन थे। इन्होंने यास्क के निरुक्त पर भी टीका लिखी है। स्कन्दमहेश्वर कृत निरुक्त-टीका में, अनेक प्राचीन व्याख्याकार 'अन्ये', 'अपरे', 'एके', 'केचित्' इत्यादि रूप से उल्लिखित हैं। वैयाकरण आपिशलि, स्मृतिकार मनु, एक अप्रसिद्ध पदकार, निघण्टुकार शाकपूणि, देवताकार, चूर्णिकार, गीता, अनुक्रमणी, बृहदेवता, वाक्यपदीयकार, भर्तृहरि के कुछ वचन आदि कई ग्रंथों और ग्रंथकारों का उल्लेख यहां मिलता हैं। इससे स्पष्ट है कि स्कन्द महेश्वर की टीका में कितनी प्राचीन सामग्री भरी हुई है। आचार्य स्कन्दमहेश्वर ने अपनी निरुक्त-टीका में ऋग्भाष्य से बहुत सहायता ली है। फिर भी उद्गीय-भाष्य का मत स्कन्दमहेश्वर को कुछ स्थलों पर अनभिमत-सा लगता है। यह देखने योग्य है कि उद्गीथ आचार्य स्कन्दस्वामी के सहकारी होने के कारण और स्कन्दस्वामी के पूजनीय होने के कारण, उद्गीथ-मत के विषय में अपनी अस्वीकृति का प्रतिपादन करते समय, स्कन्दमहेश्वर बडी सावधानी से शब्दयोजना करते हैं। पूर्वग्रंथों के गवेषणाकारों के लिये स्कन्दमहेश्वर की टीका एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। स्थविर बुद्धपालित - ई. 5 वीं शती। बौद्ध महायान-पंथ के आचार्य। इन्होंने नागार्जुन के 'माध्यमिककारिका' ग्रंथ पर टीका लिखी है किन्तु यह अनुपलब्ध है। उसका तिब्बती संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 489 For Private and Personal Use Only

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