Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 01
Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr
Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad

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Page 510
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्वानों का अभी तक एकमत नहीं। इनके पिता सहारनपुर जिले के देवबंद नामक ग्राम के निवासी अवश्य थे, किन्तु बादशाह के साथ दौरे में सपत्नीक घूमते हुए इनका जन्म "बाद" नामक ग्राम में हुआ। यह स्थान मथुरा से 4 कोस की दूरी पर है। ___ इनके संप्रदायी उत्तमदास नामक भक्त द्वारा निर्मित “हित-चरित्र" ग्रंथ के अनुसार इनका जन्म संवत् 1559 (1503 ई.) में हुआ था। सांप्रदायिक ग्रंथों के अनुसार इन्हें अल्पायु में ही श्रीराधिकाजी से स्वप्न में गुरु-दीक्षा प्राप्त हुई थी। देवबंद में इनके घर के पास एक कुआं था। उस कुएं से इन्होंने श्रीरंगलालजी की मूर्ति निकाली तथा मंदिर बनाकर उस मूर्ति की पूजा-अर्चा में लीन रहने लगे। फिर राधिकाजी की आज्ञा से ये वंदावन के लिये चल पडे। मार्ग में चिडचावल नामक ग्राम के निवासी आत्मदेव नामक ब्राह्मण ने अपनी दो कन्याएं तथा श्रीकृष्ण की एक सुंदर मूर्ति इन्हें अर्पित की। यह राधावल्लभजी का विग्रह था, जिसे आपने वृंदावन में मंदिर बनवाकर स्थापित किया। चैतन्यमतानुयायी श्री भगवत्मुदित के ग्रंथ रसिक अनन्यमाल के अनुसार इस मंदिर का प्रथम पट-महोत्सव 1519 विक्रमी में हुआ था। ये राधा-कृष्ण की युगल मूर्ति के उपासक थे तथा युगल उपासना का उपदेश इनके सिद्धान्त का सार अंश था। कृष्ण की अपेक्षा राधा की पूजा तथा भक्ति को इन्होंने अधिक महत्त्वपूर्ण एवं शीघ्र फलदायी निरूपित किया। ___ इनके दो ग्रंथ प्रधान हैं- राधा-सुधानिधि (संस्कृत में) और हित-चौरासी (ब्रज भाषा में) इनके अतिरिक्त आशास्तव, चतुःश्लोकी, श्रीयमुनाष्टक तथा राधातंत्र नामक ग्रंथ भी इनके नाम से प्रसिद्ध हैं। इनके ग्रंथों में अध्यात्म-पक्ष का विवरण कम है, प्रत्युत राधा-कृष्ण की कुंज-केलि तथा वन-विहार के । नितांत ललित एवं श्रृंगारिक वर्णन की ही इनके ग्रंथों में प्रचुरता है। ये अंत तक गृहस्थाश्रमी ही रहे। इनके चार पुत्र और एक कन्या मानी जाती है। आज भी इनके वंशज देवबंद तथा वृंदावन दोनों स्थानों में पाए जाते हैं। इनका देहान्त 50 वर्ष की आयु में विक्रमी संवत् 1609 शारदीय पूर्णिमा के दिन हुआ। अपने संप्रदाय में ये- "गोस्वामी रसिकाचार्य श्रीहित हरिवंशचंद्र" के नाम से संबोधित किए जाते हैं। हृदयनारायणदेव - ई. 17 वीं शती। एक संगीतशास्त्रकार । गढ दुर्ग (जबलपुर) के राजा प्रेमशाह के पुत्र । राजा प्रेमशाह की मृत्यु के बाद हृदयनारायण ने दिल्ली के बादशाह शहाजहां का सहारा लिया। अंतिम काल में जबलपुर के दक्षिण में (मंडला में) रहे। इन्होंने "हृदयकौतुक" व "हृदयप्रकाश" नामक संगीतशास्त्र-विषयक दो ग्रंथ लिखे। प्रथम ग्रंथ की। प्रेरणा उन्हें तरंगिणी से मिली। दूसरा ग्रंथ अहोबिल के । "संगीत-पारिजातक" पर आधारित है। इसमें तत्कालीन 12 स्वरों के स्थान, तारों की लम्बाई के आधार पर निश्चित किये गए हैं। हृषीकेश शास्त्री भट्टाचार्य - भटपल्ली ग्राम (कलकत्ता के समीप) में 1850 ई. में जन्म। सन् 1913 में मृत्यु । ओरियंटल कालेज लाहोर में आप प्राध्यापक थे। उन्होंने अनेक वर्षों तक “विद्योदय" नामक संस्कृत मासिक पत्रिका का कुशलता से संपादन किया। वे अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। अनेक अंग्रेजी पुस्तकों का संस्कृत में अनुवाद किया जिनमें “पर्यटकत्रिंशत्" और "हेमलेटचरितम्" प्रधान हैं। “विद्योदय" में प्रकाशित "नाविकसंगीत", "मातृस्तोत्र", "कमलास्तव", "वियोगिविलाप" आदि उनके गीतिकाव्य और "होल्यष्टक", "विजयादशक", “देव्यष्टक", आदि अष्टक और दशक विशेष लोकप्रिय रहे हैं। संस्कृत में हास्य और व्यंगशैली का प्रयोग भी पहली बार आपने ही सफलतापूर्वक किया। भाषाविचार, परिहास, विदूषक, काबुलयुद्ध, शिक्षाप्रयोजन आदि सामयिक विषयों पर उनके निबन्ध और एकाक्षरकोष एकवर्णार्थसंग्रह, द्विरूपाक्षकोश आदि उनके द्वारा रचित कोश, उनकी महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं। उनकी भाषा पर बाण की शैली की पूरी छाप है। उनका उद्देश्य संस्कृत भारती के भाण्डार को अर्वाचीन वाङ्मय से परिपूर्ण करना था। इसी उद्देश्य की पूर्ति की दिशा में वे सदा प्रयत्नशील रहे। हेमंतकुमार तर्कतीर्थ - ई. 20 वीं शती। बंगवासी। "सरस्वती-पूजन" नामक रूपक के प्रणेता। हेमचन्द्र राय कविभूषण - जन्म-सन् 1882 में रामनगर (पाबना-बंगाल) में। पिता-यदुनंदन राय। कृतियां(काव्य)-सत्यभामा-परिग्रह, सुभद्रा-हरण, हैहय-विजय, रुक्मिणीहरण, परशुराम-चरित और पाण्डवविजयभारती (गीति)। सभी कृतियां प्रकाशित । आप एडवर्ड महाविद्यालय पाबना में संस्कृत के प्राध्यापक थे। हेमचन्द्र सूरि (अथवा मलधारी हेमचन्द्र सूरि) - अभयदेव सूरि के शिष्य । जन्म-धंधुका (गुजरात) में। पिता-चाचदेव । माता-पाहिनीदेवी। जाति-मौढ महाजन । जन्मनाम-चंगदेव । वि.सं. 1150 में 5 वर्ष की अवस्था में ही देवचन्द्र सूरि द्वारा दीक्षित । वि.सं. 1166 में रवंभात शहर में आचार्य-पदवी-समारोह । चालुक्यवंशी राजा सिद्धराज जयसिंह द्वारा सम्मनित । महाराज कुमारपाल के राजगुरु, धर्मगुरु और साहित्यगुरु। वि.सं. 1229 में स्वर्गवास। इनके तीन शिष्य थे, विजयसिंह, श्रीचंद्र और विवुधचन्द्र। ग्रंथ- 1) आवश्यक टिप्पण-4600 श्लोक-प्रमाण, 2) शतक-विवरण, 3) अनुयोगद्वारवृत्ति, 4) उपदेशमाला-सूत्र, 5) उपदेशमाला-वृत्ति, 6) जीवसमासविवरण, 7) भवभावनासूत्र, 8) भावभावनाविवरण, 9) नन्दि-टिप्पण और 10) विशेषावश्यक भाष्य-बृहद्वृत्ति। (इन ग्रंथों का परिमाण लगभग 80000 श्लोक है। विषय की दृष्टि से प्रायः ये स्वतन्त्र हैं), 11) द्रव्याश्रय महाकाव्य (संस्कृत और प्राकृत) 2828 + 1500 श्लोक। 12) अभिधानचिन्तामणि, 13) अनेकार्थसंग्रह, 14) 494 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only

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