Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 01
Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr
Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad

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Page 479
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org (म.भा. मौसल 8-33-34) अर्थ काल सभी जागतिक घटनाओं का एवं विश्व-संहार का बीज है। काल ही अपनी शक्ति से विश्व को खा जाता है। कभी वह बलवान् होता है, कभी दुर्बल। व्यासजी के पुत्र थे शुक जो बचपन से ही वीतराग थे। जनक से आत्मज्ञान प्राप्त कर वे जीवन्मुक्त हो गये थे। उन्होंने हिमालय से होकर निर्वाण मार्ग पर बढ़ने का निश्चय किया । व्यासजी इससे व्यथित हुए। अपना जीवन अर्थशून्य मानकर उन्होंने आत्महत्या का निर्णय किया। उस समय भगवान् शंकर ने दर्शन देकर उन्हें परावृत्त किया। व्यास नामक कोई व्यक्ति थे या नहीं, इस बारे में पाश्चात्य विद्वानों ने सन्देह व्यक्त किया है पर भारतीय विद्वानों ने उन्हें मान्य किया है। वे वैदिक ऋषि थे। पराशर पिता एवं वसिष्ठ पितामह, यह परंपरा ब्राह्मण एवं उपनिषदों में भी अविच्छिन्न है। बोधायन एवं भारद्वाज के गृह्यसूत्र में भी व्यासजी का उल्लेख पराशर पुत्र के रूप में है । पाणिनि भी एक सूत्र में कह गये हैं कि व्यास पराशर पुत्र थे । (अष्टाः 4-3-110) आद्य शंकराचार्य ने अपनी गुरुपरंपरा व्यासजी से ही बतलाई है। बौद्ध साहित्य में कृष्ण द्वैपायन नाम कण्हद्वैपायन बताया गया है। उन्हें बुद्ध का ही एक अवतार माना है। अश्वघोष के सौंदरनंद नामक ग्रंथ में व्यास और उनके पूर्वजों का निर्देश है। पुराण परंपरा में तो उन्हें इस भांति नमन किया गया है : व्यासं वसिष्ठानप्तारं शक्तेः पीत्रकल्पम् । पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम् ।। भारतीय संस्कृति का सर्वांग यथावत् ज्ञान प्राप्त करना हो, तो व्यास रचित ग्रंथों का अध्ययन करना अपरिहार्य है। व्याससाहित्य भारतीय संस्कृति का मेरुदंड है । व्यासरचित एवं व्यास - संपादित ग्रंथों को "व्यासचर्या" कहा गया है। वराहपुराण के अनुसार ( 175-9 ) "व्यासचर्या" के अध्ययन से आत्मा विशद एवं शुद्ध बनती है। 1 आदियुग में जब वेदाध्ययन कठिन होने लगा, तो व्यासजी ने यज्ञसंस्था के लिये उपयुक्त और परंपरा से वेद टिके रहे इस दृष्टि से वेद राशि को चार भागों में विभक्त किया और अपने चार शिष्यों को उनका ज्ञान कराया। बहुऋचात्मक ऋग्वेद संहिता पैल को, निगदाख्य यजुर्वेदसंहिता वैशम्पायन को, छंदोग नामक सामवेदसंहिता जैमिनी को एवं आंगिरसी नामक अथर्वसंहिता सुमंतु को दी । व्यासकृत यह वेद-विभाजन सर्वमान्य हुआ है। वेदों में भगवान् के निर्विशेष रूप का जो प्रतिपादन हुआ है, उसके प्रतिपादन की अभिव्यक्ति का दर्शन अपने "ब्रह्मसूत्र” द्वारा प्रस्तुत कर, आपने एक बडी कमी पूरी की। व्यासकृत ब्रह्मसूत्र में अध्यात्म के सिद्धान्त सूत्ररूप में ग्रथित किये गये हैं। शंकराचार्य निबार्काचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, मध्वाचार्य आदि आचार्योंने ब्रह्मसूत्र को ही आधार मान कर अपने-अपने दर्शन निर्माण किये। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन काल में पुराणों का स्वरूप अव्यवस्थित था । वह सूतमागधों के विभिन्न गुटों में बिखरा हुआ था। व्यासजी ने उसे एकत्र कर सुबद्ध पुराणसंहिता तैयार की और अपने शिष्य लोमहर्षण को उसका प्रसार करने की आज्ञा की। लोमहर्षण व्यास - संहिता के आधार पर अपनी एक पुराण - संहिता तैयार की और अपने छह शिष्यों को उसका प्रसार करने के लिये कहा। इस भांति मूल एक पुराण के 18 पुराण बने। इस प्रकार पुराण वाङ्मय के प्रवर्तक व्यास ही थे । उनकी समस्त ग्रंथ संपदा में महाभारत की महिमा अलौकिक है । व्यासजी की कीर्ति का वह जयस्तंभ है। उसे "पंचम वेद" कहा गया है 1 हिमालय के नर-नारायण नामक दो पर्वतों के बीच से भागीरथी प्रवाहित है। उसके किनारे विशाला बदरी नामक स्थान है। महाभारत युद्ध के बाद वहीं अपना आश्रम स्थापित कर उन्होंने निवास किया, एवं तीन वर्षों तक सतत कार्यरत रह कर, "महाभारत" की आद्यसंहिता तैयार की। अपने ग्रंथों द्वारा व्यासजी ने राजसत्ता का विस्तृत और सुयोग्य मार्गदर्शन किया है। उनके मतानुसार राजधर्म बिगड़ गया तो वेद, धर्म, वर्ण, आश्रम, त्याग, तप, विद्या सभी का नाश होता है। आपने धर्म का जो विवेचन किया है, वह उनके महान ऋषित्व का दर्शन है। व्यक्ति, राष्ट्र, समग्र जीवन, लोक और परलोक का जो "धारण" करता है, वही धर्म है, यह उनकी व्याख्या है। धर्म जीवन-धारण की उत्तम वस्तु है, तो जीवन भी उतना ही मूल्यवान् होना चाहिये। उनके अनुसार जीवन रोने के लिये नहीं, वह आनंदमय है। वे जिस भांति कर्मवाद को मानते है उसी भांति दैववाद को भी उनका केन्द्रबिन्दु देवता नहीं, मनुष्य है। गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि । न हि मानुषाच्छ्रेष्ठतरं हि किंचित् । (म.भा. शांति 1-10-12) अर्थ - मैं यह रहस्यज्ञान आपको कराता हूं कि इस संसार में, मनुष्य को छोड कर और कोई श्रेष्ठ नहीं । इसी कारण उन्होंने पुरुषार्थ का उपदेश किया । पाणि याने हाथ याने पुरुषार्थ इसी लिये उन्होंने इन्द्र के मुख से "पाणिवाद" की प्रशंसा की है। अहो सिद्धार्थता तेषां येषां सन्तीह पाणयः । अतीव स्पृहये तेषां येषां सन्तीह पाणयः । । पाणिमद्भ्यः स्पृहाऽस्माकं यथा तव धनस्य वै । For Private and Personal Use Only संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 463

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