Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 01
Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr
Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad

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Page 490
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन इतिहास-पुराणों में शूद्रक नामक एकाधिक राजा है। अर्थ- विश्वास पर ही धरोहर रखी जाती है, मकान की कहते हैं कि शूद्रक याने संवत्सर-संस्थापक विक्रमादित्य थे। मजबूती पर नहीं। राजशेखर ने एक शूद्रक का उल्लेख किया है जिनके दरबार साहसे श्रीः प्रतिवसति । में रामिल और सोमिल नामक दो कवि थे और इन दोनों अर्थ- साहस में संपत्ति रहती है। कवियों ने मृच्छकटिक की रचना की। कालिदास के संस्कृत के सुप्रसिद्ध प्राचीन नाटककारों में कालिदास एवं मालविकाग्निमित्र में सौमिल्लक का उल्लेख है। इस आधार भास के समान शूद्रक का स्थान अत्युच्च है। उनका मृच्छकटिक पर कालिदासपूर्व काल के राजा होने चाहिये। नामक नाटक सार्वकालिक लोकाभिरुचि की कृति बन पडी ___ कथासरित्सागर में भी एक शूद्रक का उल्लेख है जिन्हें है। नाट्यशास्त्र की विहित मर्यादा का उल्लंघन करते हुए सौ वर्ष की आयु मिली थी। ये शूद्रक हैं आभीर राजा शूद्रक ने इस नाटक की रचना की है। शिवदत्त (सन् 250)। हाल ही में भास कृत नाटक के रूप शृंगारशेखर - 14 वीं शती। आन्ध्रवासी। में दो नाटक मिले हैं। उनमें दरिद्रचारुदत्त नामक चार अंक अभिनयभूषण नामक संगीत शास्त्र विषयक ग्रंथ के लेखक। का अपूर्ण नाटक है। इसमें और मृच्छकटिक के पूर्व भाग शेवडे, वसन्त, त्र्यम्बक - जन्म- सन् 1918 । नागपुर-निवासी। में बहुत साम्य है। पंडितों का तर्क है कि मृच्छकटिक भास रचना-वृत्तमंजरी (वृत्तलक्षणात्मक काव्य)। इसमें भगवतीस्तोत्र की या अन्य किसी की सम्पूर्ण कृति थी। दरिद्रचारुदत्त, उसी । के उदाहरण, उसी वृत्त में दिये गये हैं तथा लक्षणनामादि भी का संक्षेप है। दर्शित किये गये हैं। ___बाण ने कादंबरी में और दंडी ने दशकुमारचरित में शूद्रक इनकी रघुनाथतार्किक-शिरोमणि-चरितम् नामक त्रिसर्गात्मक, का उल्लेख किया है। कुछ पंडितों ने स्कंद-पुराण का आधार ___127 श्लोकों की रचना, “सारस्वती सुषमा" (अं. 3-4 व लेकर कहा है कि आंध्रभृत्य-वंश के संस्थापक शिमुक एवं 12) में प्रकाशित हुई है। इसके अतिरिक्त शुभविजय नामक शूद्रक एक ही थे। पं. चंद्रबली पांडे के अनुसार शूद्रक ही आपके महाकाव्य को उत्तरप्रदेश अकादमी का 1985 में साहित्य वासिष्ठीपुत्र पुलुमायी हैं। अवंतिसुंदरी-कथासार ग्रंथ में इंद्राणीगुप्त अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ है। उत्तर आयुष्य में वाराणसी का दूसरा नाम शूद्रक दिया गया है। निवास। इन सारे मतमतांतरों से मृच्छकटिक की रचना किसने की शेवालकर शास्त्री - 20 वीं शती। विदर्भ-निवासी। रचनाइसका निर्णय नहीं हो पाता। पर यह निश्चित है कि वह जो "पूर्णानन्दचरितम्"। इसमें ई. 19 वीं शती के प्रसिद्ध वैदर्भीय कोई भी हो, दक्षिण भारत का था। इस नाटक में साधु श्रीपूर्णानन्द स्वामी का चरित्र ग्रथित है। (50 अध्यायों "कर्नाटकलहप्रयोग" एवं दक्षिण के द्रविड, चोल आदि का में)। लेखक ने स्वयं इस काव्य का मराठी अनुवाद भी किया उल्लेख है। इस नाटककार को संस्कृत के साथ प्राकृत भाषा है। आप कीर्तन कला में निपुण थे। का और ज्योतिष एवं धर्मशास्त्र का अच्छा ज्ञान था। वह शेषकृष्ण - ई. 16 वीं शती। पिता-नरसिंह। काशी में शिवभक्त और योगाभ्यासी भी था। तण्डनवंशी राजा गोविन्दचन्द्र का आश्रय प्राप्त। "गोविन्दार्णव" ___ कवि के रूप में शूद्रक, भवभूति एवं कालिदास की बराबरी नामक धर्मशास्त्र विषयक ग्रंथ की रचना की। काशी में के थे। वैयाकरण-परम्परा की स्थापना की, जिसमें आगे चलकर भट्टोजी उदयति हि शशाङ्कः कामिनीगण्डपाण्डुः तथा नागोजी आदि विद्वान् हुए। ज्येष्ठ बन्धु चिन्तामणि ने ग्रहगणपरिवारो राजमार्गप्रदीपः। रुक्मिणीहरण नामक रूपक तथा रसमंजरी-परिमल की रचना तिमिर-निकरमध्ये रश्मयो यस्य गौराः की। पुत्र वीरेश्वर ने पण्डितराज जगन्नाथ, भट्टोजी तथा अनंभट्ट स्रुतजल इव पके क्षीरधाराः पतन्ति।। को शास्त्रीय ज्ञान में दीक्षा दी। तत्कालीन काशिराज "गोवर्धनधारी" का आश्रय प्राप्त। उनकी विद्वद्गोष्ठी के सदस्य। कृतियांअर्थ- कामिनी के कपाल समान सफेद, ग्रहगण से घिरा, क्रियागोपन-रामायण (चम्पू)- पारिजातहरण (काव्यमाला मुंबई राजमार्ग का दीप चंद्रमा उदित हुआ है। घने अन्धःकार में से 1926 ई. में प्रकाशित), उषापरिणय, सत्यभामा-विलास । सफेद किरण, रेती के कीचड में दूध की धारा जैसे बरस रहे हैं। (रूपक)- मुरारिविजय, मुक्ताचरित, सत्यभामा-परिणय और कुछ सुभाषित देखिये - कंसवध। अल्पक्लेशं मरणं दारिद्रययमनन्तकं दुःखम्। शेषकृष्ण - प्रक्रियाकौमुदी-प्रकाश (वृत्ति) के लेखक । प्रक्रियाअर्थ- मरने में दुख थोडा सा होता है, तो दारिद्र में दुख कौमुदीकार रामचन्द्र के भ्रातृज तथा शिष्य । समय ई. 16 वीं शती। समाप्त ही नहीं होता। पुरुषेषु न्यासाः निक्षिप्यन्ते न पुनर्गेहेषु। . शेषगिरि - ई. अठारहवीं शती का मध्य। पिता-शेषगिरीन्द्र । 474 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only

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