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लिये प्रयास एक आकर धर्म में जावे, सभी
किया। अंत में वे काश्मीर गये। वहां शारदा के एक मंदिर गोविंद के बीच चार पुरुष हैं : गौडपाद- पावक- पराचार्यमें विद्वानों का वास्तव्य था। वहीं एक पीठ था। उसे सत्यनिधि- रामचंद्र- गोविंद। "सर्वज्ञ-पीठ" कहते थे। आचार्य उसी पर जाकर बैठ गये।
काशी का सुमेरुमठ एवं कांची का कामकोटि-पीठ भी विद्वानों ने उनसे पूछा- "क्या आप सर्वज्ञ है" उनकी स्वीकारोक्ति
आचार्य द्वारा निर्मित माना जाता है। कामकोटि-पीठ के अधिपति पर, उन्होंने उन्हें अनेक प्रश्न पूछे। आचार्य द्वारा समाधान इसे ही प्रधानपीठ मानते हैं। कुछ उपपीठ भी निर्माण हुए किया जाने पर, सभी ने उनका जयजयकार किया।
हैं। वे हैं : कूडली, संकेश्वर, पुष्पगिरि, विरूपाक्ष, हव्यक, आचार्य नेपाल गये। वहां पशुपतिनाथ मंदिर पर बौद्धों का शिवगंगा, कोप्पाल, श्रीशैल, रामेश्वर एवं बागड। सभी मठाधीशों अधिकार था। वैदिक पूजाविधि जानने वाला कोई नहीं था। को आचार्य ने जो उपदेश किया, उसे 'महानुशासन' कहा नेपाल के राजा की अनुमति से केरल ने नंपूतीरी ब्राह्मण गया है। उसकी धर्माज्ञा के अनुसार मठपति अपने राष्ट्र की बुलाकर उन्होंने उन्हें पूजा का कार्य सौपा। मंदिर का जीर्णोद्धार प्रतिष्ठा के लिये आलस छोड दे, अपने शासनप्रदेश में सदैव किया।
भ्रमण कर वर्णाश्रमों के कर्तव्यों का उपदेश करें। सदाचार ___ अपनी 31 वर्ष की आयु में भाष्य-लेखन, प्रचार दिग्विजय, बढावें, एक मठाधिपति दूसरेके अधिकार-क्षेत्र में जावें, सभी मठस्थापन आदि प्रचंड कार्य आपने पूर्ण किये। अंत में मठाधिपति बीच-बीच में एकत्र आकर धर्मचर्चा करें, धार्मिक केदार-क्षेत्र को देहत्याग के लिये योग्य मानकर, वैशाख शुक्ल सुव्यवस्था के लिये प्रयास करें, वैदिक धर्म प्रगतिशील एवं एकादशी के दिन इस यतिश्रेष्ठ ने शरीर त्याग किया। उनके अक्षुण्ण रहे, इस हेतु दक्ष रहें। शास्त्रज्ञ विद्वान् ही धर्म के निर्याण-स्थल और तिथि पर मतभेद है।
मामले में नियामक हो सकते हैं। वे धर्मपीठों पर नजर रखें, आचार्य के चार प्रमुख शिष्य थे। सुरेश्वर (मंडनमिश्र, समय-समय पर मठपति के आचरण की जांच करें। विद्वान, पद्यपाद (सनंदन), हस्तामलक (पृथ्वीधर) एवं तोटकाचार्य चारित्र्यवान्, कर्तव्यदक्ष, सद्गुणी संन्यासी को ही पीठाधिष्टित करें। (गिरि)। हस्तामलक के बारे में कथा है कि उनके पिता
आचार्य द्वारा लिखे गये ग्रंथों की संख्या 200 से अधिक बच्चे की वैराग्यवृत्ति देखकर उसे आचार्य के पास ले आये। आचार्य ने बच्चे से पूछा- तुम कौन हो, कहां के हो, किस
मानी जाती है। उनमें आद्य शंकराचार्य के प्रमाणभूत जो ग्रंथ ' के हो, उत्तर मिला -
निश्चित हुए हैं, वे हैं : प्रस्थानत्रयी के भाष्य। (प्रस्थानत्रयी
= ब्रह्मसूत्र, दशोपनिषद् और भगवद्गीता) स्तोत्रों में आनंदलहरी नाहं मनुष्यो न च देवयक्षो
भगवती देवी पर रचा गया है। शिखरिणी वृत्त में 107 श्लोक न ब्राह्मणः क्षत्रियवैश्यशूद्राः ।
इसमें है। उनमें प्रारंभिक 41 श्लोकों को आनन्दलहरी और न ब्रह्मचारी, न गृही वनस्थो
अवशिष्ट श्लोकों को सौन्दर्यलहरी नाम है। उस पर 30 टीकाएं भिक्षुर्नचाहं निजबोधरूपः।।
उपलब्ध हैं। देवी की यह स्तुति रसिकजनों को आनंदप्रद रही है। अर्थ- मैं मनुष्य नहीं, उसी भांति देव, यक्ष भी नहीं। मैं
दक्षिणामूर्ति-स्तोत्र शार्दूल-विक्रीडित वृत्त में है। इसमें वेदान्त चारों वर्गों में से कोई नहीं, चारों आश्रम में से कोई नहीं।
_प्रतिपादन के सार्थ तांत्रिक उपासना के कुछ पारिभाषिक शब्द हैं। में केवल निजबोधरूप अर्थात् ज्ञानरूप हूं।
चर्पटपंजरी (17 श्लोकों का स्तोत्र) अत्यंत नादमधुर है। तब आचार्य ने पिता से कहा- यह बच्चा आपके काम
उसमें वैराग्य का उपदेश है। इसे "भज गोविंदम्" कहते है। का नहीं। यह कोई जीवन्मुक्त आत्मा है। इसे मेरे यहां छोडिये।
षट्पदी- स्तोत्र का एक प्रसिद्ध श्लोक हैआचार्य ने अपने इन चारों शिष्यों की नियुक्ति चार पीठों पर की। पद्मपाद-गोवर्धनपीठ (उडीसा), सुरेश्वर-शृंगेरीपीठ
सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम्। (कर्नाटक), हस्तमालक-शारदापीठ (द्वारका) एवं
सामुद्रो हि तरङ्गः क्वचन समुद्रो न तारङ्गः ।। तोटक-ज्योतिर्मठ (हिमालय)।
हरिमीडे-स्तोत्र में विष्णु की प्रंशसा है। शिवभुजंगप्रयात में प्रचलित ग्रंथों के अनुसार, आचार्य की गुरुपरंपरा इस भांति
चौदह श्लोक हैं। अपनी मां के अंत में आचार्य ने उनके है- विष्णु-शिव- ब्रह्मा- वसिष्ठ-शक्ति- पराशर- शुक- गौडपाद
निमित्त श्रीकृष्णस्तुतिपर स्तोत्र की रचना की। गोविंद- शंकर। इस परंपरा के अनुसार, शंकराचार्य गौडपाद
__'सौंदर्यलहरी' काव्य-दृष्टि से सरस, प्रौढ एवं रहस्यपूर्ण स्तोत्र के प्रशिष्य एवं गोविंद के शिष्य हैं। आचार्य श्रीविद्या के
है। यह शतक काव्य है। 41 श्लोकों में तंत्रविद्या के रहस्य उपासक थे। उनके कुछ मठों में श्रीचक्र की स्थापना रहती
एवं 59 श्लोकों में त्रिपुरसुन्दरी का वर्णन है। है। मठपति के दैनिक कृत्यों में श्रीचक्र की पूजा की विधि प्रकरण ग्रंथ- आचार्यजी ने अपने अद्वैत वेदान्त प्रचार हेतु भी है। आचार्य के सौन्दर्यलहरी और प्रपंचसार ये प्रकरणग्रंथ जो छोटे-बड़े ग्रंथ लिखे, उन्हें 'प्रकरण ग्रंथ' कहा जाता है। तंत्रविद्या के ही हैं। श्रीविद्यार्णवतंत्र के अनुसार, गौडपाद और इसमें कुछ प्रमुख हैं : अद्वैत-पंचरत्न, अद्वैतानुभूति,
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /467
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