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इतिहास में महत्त्वपूर्ण तथा अविस्मरणीय स्थान प्राप्त करने में पूर्णतः सफल सिद्ध हुए हैं। व्योमशिवाचार्य - वैशेषिक-दर्शन के एक भाष्यकार। प्रशस्तपादभाष्य पर आपकी लिखी टीका का नाम है "व्योमवती"। उदयनाचार्य ने किरणावली में "आचार्याः" कहकर आपका गौरव किया है। राजशेखर ने भी न्यायकंदली में भाष्यकारों की सूची में आपको प्रथम स्थान दिया है। इसी से आपका काल ई. 10 वीं शती के पूर्व अनुमानित है। श्रीधर, शिवादित्य आदि वैशेषिक आचार्य प्रत्यक्ष एवं अनुमान इस भांति प्रमाण द्वय मानते है किन्तु व्योमशिवाचार्य शब्द को भी स्वतंत्र प्रमाण मानते हैं। शंकर दीक्षित - समय-ई. 18 वीं शती। काशी नरेश चेतसिंह के समकालीन। काशीनिवासी महाराष्ट्रीय ब्राह्मण। पिता-बालकृष्ण (संस्कृत-रचनाकार)। पितामह-ढुण्डिराज (शाहविलासगीत तथा मुद्राराक्षस की टीका के रचयिता)। कृतियां- प्रद्युम्नविजय (नाटक), गंगावतार और शंकरचेतोविलास (चम्पू)। शंकरचेतोविलास चंपू में काशी नरेश चेतसिंह का चरित्र वर्णित है। आप बुंदेलखंड के राजा सभासिंह के भी कुछ काल तक सभापंडित रहे थे। शंकरभट्ट - ई. 17 वीं सदी। स्वयं को "मीमांसाद्वैत-साम्राज्यनीतिज्ञ" कहलवाते थे। पिता-काशी के सुप्रसिद्ध धर्मशास्त्रज्ञ एवं महामीमांसक नारायणभट्ट । पार्थसारथी मिश्र की "शास्त्रदीपिका" के दूसरे भाग पर आपने प्रकाश नामक टीका लिखी है। आपका प्रसिद्ध ग्रंथ है "द्वैतनिर्णय"। इस ग्रंथ में कृष्णजन्माष्टमीव्रत, नवरात्रव्रत, संनिपाताशौच आदि के मतमतांतरों पर मीमांसाशास्त्र के आधार पर निर्णय दिये गये हैं। मीमांसा-बालप्रकाश यह ग्रंथ, पूर्वमीमांसासूत्रों के सिद्धांतों का बालसुबोध पद्यात्मक विवेचन है। इसके अतिरिक्त निर्णयचंद्रिका, व्रतमयूख, विधिरसायन, श्राद्धकल्पसार, ईश्वरस्तुति
आदि ग्रंथों की भी रचना आपने की है। सिद्धांतकौमुदी के रचयिता भट्टोजी दीक्षित आपके शिष्य और भगवद्भास्कर नामक बृहत् ग्रंथ के लेखक नीलकंठ आपके पुत्र थे।
(2) ई. 17 वीं सदी। एक धर्मशास्त्रकार और मीमांसक। पिता-नीलकंठ। पिता के धर्मशास्त्रविषयक “संस्कारमयूख" ग्रंथ में शंकर भट्ट ने बहुत सहायता की। आपके ग्रंथ हैंकुंडभास्कर, व्रतार्क, कुंडार्क, कर्मविपाकार्क, सदाचार-संग्रह एवं एकादशीनिर्णय। “व्रतकौमुदी" नामक एक और ग्रंथ भी शंकर भट्ट के नाम पर मिलता है किंतु ये शंकरभट्ट कौन हैं, इसका पता नहीं चल पाया। शंकर मिश्र - ई. 15 वीं शती। बिहार प्रदेश के दरभंगा जिले में सरिसव नामक स्थान पर जन्म। पिता-भवनाथ मिश्र उपाख्य डायाची.. मीमांसक थे। गुरु-रघुदेव उपाध्याय अथवा कणाद एवं महेश ठाकुर। शंकर मिश्र ने खंडनखाद्य-ग्रंथ पर
टीका लिखी है। आप द्वैतवादी एव शिवभक्त थे। आपके जन्मस्थान पर निर्मित सिद्धेश्वरी देवी का मंदिर आज भी विद्यमान है। ___ अन्य रचनाएं- उपस्कार, कणादरहस्य, आमोद, कल्पलता, कंठाभरण, आनंदवर्धन, मयूख, वादिविनोद, भेदरत्नप्रकाश, स्मृतिपरक तीन ग्रंथ और शिव-पार्वती-विवाह पर गौरीदिगंबर नामक प्रहसन। शंकरलाल (म.म.) - मोरवी-निवासी। संस्कृत महाविद्यालय मोरवी के आजीवन प्राचार्य थे। जन्म- 1842, मृत्यु 1918 ई.। जन्म- काठियावाड (गुजरात) के प्रशनोर नगर में। भारद्वाज-गोत्री गुजराती ब्राह्मण। पिता-भट्ट महेश्वर (प्रथम गुरु) । द्वितीय गुरु- केशव शास्त्री। शैव। जामनगर के राजा द्वारा "महामहोपाध्याय" की उपाधि । मोरवी के राजा द्वारा सम्मानित । इनके स्मरणार्थ मोरवी में “शंकराश्रम" की स्थापना की गई जहां प्रति दिन धार्मिक कार्यक्रम होते हैं। इनकी सभी कृतियां शिष्यों द्वारा प्रकाशित।
कृतियां- बालचरित (महाकाव्य), चन्द्रप्रभाचरित (गद्य-उपन्यास), विपन्मित्र तथा विद्वत्कृत्यविवेक (निबन्ध), प्रयोगमणिमाला (लघुकौमुदी पर टीका), अनसूयाभ्युदय, भगवती-भाग्योदय, महेश्वरप्राणप्रिया, पांचालीचरित, अरुन्धतीचरित, प्रसन्न-लोपामुद्रा, केशव-कृपा-लेश-लहरी, कैलाशयात्रा, भ्रान्ति-माया-भंजन, मेघप्रार्थना, सावित्री-चरित, गोपाल-चिन्तामणि-विजय, ध्रुवाभ्युदय, अमर-मार्कण्डेय तथा श्रीकृष्णाभ्युदय ये छायानाटक और भद्रायु-विजय नामक रूपक। सभी नाटकों में छायातत्त्व की प्रचुरता है। इनके द्वारा गुजराती में लिखित ग्रंथ है : अध्यात्म-रत्नावली। शंकरस्वामी - चीनी-परम्परा के अनुसार दिङ्नाग के शिष्य । दक्षिण भारत के निवासी। बौद्ध न्यायसंबंधी इन्होंने दो ग्रंथ लिखे- हेतुविद्या-न्यायप्रवेश तथा न्यायप्रवेश-तर्कशास्त्र । हवेनसांग ने ई. 647 में इनका चीनी अनुवाद किया। शंकराचार्य (भगवत्पूज्यपाद) - ई. 7-8 वीं शती। महान् यति, ग्रंथकार, अद्वैत-मत के प्रवर्तक, स्तोत्रकार, एवं वैदिक सनातन धर्म के संस्थापक, भगवान् शंकराचार्य भारतवर्ष को एक महान विभूति थे।
आचार्य के पूर्वकाल में जैन एवं बौद्ध मतों का संघर्ष वैदिक धर्म के साथ चल रहा था। बौद्धों का प्रभाव अधिक था। ऐसे समय वैदिक धर्म को क्रियाशील पंडित की आवश्यकता थी। तब भगवत्पूज्यपाद श्रीशंकराचार्य के रूप में यह पुरुषश्रेष्ठ भारत को प्राप्त हुआ। आचार्य के जन्मकाल के विषय में मतभेद है। कुछ लोग उन्हें सातवीं सदी का मानते हैं, तो कुछ नौवीं का। लोकमान्य तिलक के अनुसार सातवीं सदी का अंतिम चरण उनका जन्मकाल रहा। प्रा. बलदेव उपाध्याय भी सातवीं सदी के अंतिम चरण से आठवीं सदी के प्रथम चरण का काल मानते हैं।
30 अयाची
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 465
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