________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हिन्दू समाज में एकता की भावना जगाने और विधर्मियों के आक्रमण का सफल प्रतिकार करने की प्रेरणा देने में रामानंद के महत्त्वपूर्ण योगदान का इतिहास साक्षी है।
रामानंद ने संस्कृत व हिन्दी में जिन ग्रंथों की रचना की है, उनके नाम हैं- 1) वैष्णवमताब्ज-भास्कर 2) रामार्चनपद्धति. 3) गीताभाष्य, 4) उपनिषद्भाष्य, 5) आनंदभाष्य, 6) सिद्धान्तपटल, 7) रामरक्षास्तोत्र, 8) योगचिंतामणि, 9) श्रीरामाराधनम्, 10) वेदान्त-विचार, 11) रामानंदादेश, 12) अध्यात्मरामायण आदि। काशी के पंचगंगा घाट पर रामानंद का मठ विद्यमान है। रामानन्द त्रिपाठी - समय- ई. 17 वीं शती। सरयूपारीण ब्राह्मण। पिता- मधुकर त्रिपाठी शैव विद्वान् एवं काशीनिवासी थे। कृतियां- रसिक-जीवन, पद्यपीयूष, काशीकुतूहल, रामचरित, भावार्थ-दीपिका (टीका), हास्यसागर (प्रहसन) विराविवरण) सन 1655 ई. में दारा शिकोह की प्रार्थनानुसार रचित)। दारा (बादशाह शाहजहां का पुत्र) से "विविध विद्याचमत्कार-पारंगत" की उपाधि प्राप्त । इन्होंने "सिद्धांत कौमुदी" की "तत्त्वदीपिका" नामक व्याख्या तथा लिंगानुशासन पर टीका लिखी। रामानन्द राय - ई. 16 वीं शती। उत्कल के महाराज गजपति प्रतापरुद्र का आश्रय। पिता-भवानन्द राय (राजमंत्री)। रचना- जगन्नाथ-वल्लभ नामक पांच अंकों का संगीत नाटक। रामानुज - कुरुकापुरनिवासी। पिता- गोविन्द। रचनाकुरुकेश-गाथानुकरणम् जो मूल नालायिरम् नामक प्रख्यात तामिल काव्य का अनुवाद है। रामानुज कवि - ई. 17 वीं शती। त्रिवेल्लोर (तामिळनाडु) के निवासी। रचनाएं- वसुमती-कल्याण, वीरराघव-कङ्कणवल्ली-विवाह, वार्धिकन्यापरिणय और वेदपादरामायण। रामानुजदास- "नाथमुनि-विजय-चम्पू" नामक काव्य के प्रणेता।। मैत्रेय गोत्रोद्भव कृष्णाचार्य के पुत्र। समय- अनुमानतः ई. 16 वीं शताब्दी का अंतिम चरण। चंपू-काव्य के अतिरिक्त इनकी अन्य कृतियां हैं- वेंगलार्य-परंपरा, उपनिषदर्थविचार और तथ्य-निरूपण। ये ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित हैं। इनका उल्लेख डिस्क्रिएिव कैटलाग मद्रास 12306 में प्राप्त होता है। . रामानुजाचार्य - समय- 1017-1137 ई.। श्री-वैष्णव मत के आचार्य शिरोमणि। यामुनाचार्य (आलवंदार) के निकटस्थ स्नेही। उनके पौत्र श्री शैलपूर्ण के भागिनेय। जन्म- 1017 ई. में तेरूकुदूर नामक मद्रास के समीपस्थ ग्राम में। पिता-केशवभट्ट जो इन्हें बचपन में ही छोड कर चल बसे। तब इन्होंने कांची जाकर यादवप्रकाश नामक एक अद्वैती विद्वान् के पास वेद एवं वेदान्त का अध्ययन आरंभ किया। किन्तु यह अध्ययन अधिक दिनों तक न चल सका। उपनिषद् के अर्थ के विषय में गुरु-शिष्य के बीच विवाद खडा हो गया।
अतः अपने गुरु यादवप्रकाश को छोड रामानुज स्वतंत्र रूप से वैष्णव-शास्त्र का अनुशीलन करने लगे।
यामुनाचार्य (आलवंदार) ने अपनी मृत्यु के समय अपने एक शिष्य द्वारा रामानुज को बुलवा भेजा किन्तु उनके श्रीरंगम् पहुंचने से पहले ही आलवंदार का वैकुंठवास हो चुका था। रामानुज ने देख, कि वैकुंठवासी हुए आचार्य के हाथ की तीन उंगलिया मुडी हुई हैं। इसका रामानुज ने यह अर्थ लगाया कि आलवंदार उनके द्वारा ब्रह्म-सूत्र और विष्णु-सहस्रनाम पर भाष्य तथा आलवारों के 'दिव्यप्रबंधम्' पर टीका लिखवाना चाहते थे। एतदर्थ रामानुज ने ब्रह्म-सूत्र पर स्वयं 'श्रीभाष्य' नामक विख्यात भाष्य की रचना की और अपने पट्टशिष्य कूरेश (कुरत्तालवार के ज्येष्ठ पुत्र पराशर) के द्वारा विष्णुसहस्रनाम की टीका 'भगवतद्-गुण-दर्पण' तथा अपने मातुल-पुत्र कुरूकेश के द्वारा नम्मालवार के 'तिरूवाय मौलि' पर तामिल भाष्य की रचना कराई। इस प्रकार रामानुज ने दिवंगत आचार्य आलवंदार के तीनों मनोरथों की पूर्ति कर वैष्णव-समाज की बडा हित किया।
रामानुज के जीवन की तीन घटनाएं प्रमुख हैं। पहली है महात्मा नाम्बि से अष्टाक्षर-मंत्र (ओम् नमो नारायणाय) की दीक्षा लेना। यह मंत्र जगदुद्धारक होने के कारण महात्मा नाम्बी ने इनसे आग्रह किया था कि इस यंत्र को वे अत्यंत गोपनीय रखें किंतु संसार के प्राणियों के विषम दुःख से उद्धार-निमित्त इन्होंने मकान की छतों से तथा वृक्षों के शिखरों से इस मंत्र का सभी-किसी को उपदेश देकर उसका विपुल प्रचार किया।
दूसरी घटना है श्रीरंगम् के अधिकारी चोलनरेश का कट्टर शैव राजा कुलोत्तुंग के भय से श्रीरंगम् का परित्याग करना। यह घटना 1096 ई. के आसपास की है जब रामानुज की आयु 80 वर्ष की थी। राजा ने रामानुज को अपने दरबार में बुलाया था किंतु इनके पट्ट शिष्य कूरेश ने इन्हें वहां जाने नहीं दिया। गुरु के बदले कूरेश स्वयं राजदरबार में जा उपस्थित हुए और वहां पर वैष्णव-धर्म का उपदेश दिया। फलतः राजा के कोप का भाजन बन अपनी आखों से इन्हें हाथ धोना पड़ा।
तीसरी प्रमुख घटना है, मैसूर के शासक बिट्टिदेव को वैष्णव धर्म में दीक्षित करना तथा उनका नाम विष्णुवर्धन रखना। इस घटना का समय 1098 ई. है। फिर 1100 ई. के आसपास रामानुज ने मेलकोटे में भगवान् श्रीनारायण के मंदिर का निर्माण कराया और लगभग 16 वर्षों तक वे इसी प्रदेश में रहे। कट्टर (धर्मांध) शैव राजा कुलोत्तुंग की मृत्यु के पश्चात् रामानुज 1118 ई. में श्रीरंगम् लौट आए और अनेक मंदिरों का निर्माण करवा कर 1137 ई. तक आचार्य-पीठ पर आसीन रहे। इन्होंने दक्षिण के विष्णु-मंदिरों में वैखानसआगम द्वारा होने वाली उपासना का उच्चाटन करते हुए उसके स्थान पर पांचरात्र आगम को प्रतिष्ठित किया।
430 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
For Private and Personal Use Only