Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 01
Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr
Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad

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Page 468
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra में लगभग 35 ग्रंथों की रचना की है। संस्कृत ग्रंथों के नाम इस प्रकार है- श्रीकल्पसूत्र-सुबोधिका, लोकप्रकाश, हेमलघुप्रक्रिया, शांतसुधारस जिनसहरुनाम स्तोत्र, हेमप्रकाश, नयकर्णिका, षत्रियत्- जल्पसंग्रह, अर्हन्नमस्कार-स्तोत्र, और आदिजिनस्तवन । "इंदुदूत" का प्रकाशन श्री जैन साहित्यवर्धक सभा, शिवपुर (पश्चिम खानदेश, महाराष्ट्र) से हुआ है इस संदेश काव्य की रचना "मेघदूत" के अनुकरण पर की है, किंतु नैतिक व धार्मिक तत्त्वों की प्रधानता के कारण इन्होंने एक सर्वथा नवीन विषय का प्रतिपादन किया है। विनायकभट्ट समय-ई. 19 वीं शती रचना आजचन्द्रिका विषय- अंग्रेजी साम्राज्य के वैभव का वर्णन । - विबुध श्रीधर - समय ई. 15 वीं शती । कार्यक्षेत्र - राजस्थान । रचना- भविष्यदत पंचमी कथा इसकी रचना लम्बकंचुक्कुल के प्रसिद्ध साहू लक्ष्मण की प्रेरणा से हुई । विम्राजसौर्य ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 117 वें सूक्त के द्रष्टा । इसमें सूर्य की स्तुति की गयी है। इस सूक्त की चौथी ऋचा में कहा गया है कि विश्वरक्षक व देवरक्षक सूर्य अपने तेज से त्रैलोक्य का पोषण करता है। - विमद ऐंद्र प्राजापत्य ऋग्वेद के दसवें मंडल में 20 से 26 तक सूक्तों की रचना इनकी मानी जाती है। इन्हें अनुकृत वासुक भी कहा जाता है अपने सूतों में इन्होंने अग्नि, इन्द्र, सोम व पूर्वा की स्तुति की है । www.kobatirth.org ऋग्वेद में विमद का उल्लेख इन्द्र व प्रजापति के मानसपुत्र के रूप में किया गया है। पुरुमित्र की पुत्री कमद्यू इनकी पत्नी थी। उसने स्वयंवर में इनके गले में वरमाला डाली तो वहां उपस्थित अन्य राजाओं ने इनके साथ युद्ध किया । अश्विदेवताओं के सहयोग से ये युद्ध में विजयी हुए। विमलकुमार जैन कलकत्ता के निवासी । रचनाएंरक्षाबन्धनशतक । वीर-पंचाशत्का गणेशपंचविंशतिका, मुनिद्वात्रिंशत्का, द्रव्यदीपिका और गान्धिवादाष्टक । - - विमलदास वीरग्राम के निवासी । अनन्तसेन के शिष्य । तंजौर नगर इनका कार्यक्षेत्र था । समय-ई. 17 वीं शती । ग्रंथ - सप्तमंत्रतरंगिणी ( 800 श्लोक ) । - विमलमति समय वि. सं. 702 के लगभग । भर्तृहरि उपाधि रचना भागवृत्ति, जो पाणिनि की अष्टाध्यायी पर काशिका के समान प्रामाणिक वृत्ति है। लेखक बौद्ध सम्प्रदाय में प्रसिद्ध व्यक्ति । संपूर्ण ग्रन्थ अनुपलब्ध । किसी श्रीधर ने इस भागवृत्ति पर व्याख्या लिखी थी, वह भी अप्राप्य है। त्रिरूप अंगिरस ऋग्वेद के आठवे मंडल के 43, 44 व 75 वें सूक्तों के द्रष्टा । इन्हें अंगिरा का पुत्र कहा गया है। इनके तीनों सूक्त अग्नि की स्तुति में है। विरूपाक्षकवि "चोलचम्पू" व "शिवविलासचम्पू" नामक 452 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड - 1 काव्यों के प्रणेता "चोलचम्पू" के संपादक डा. श्री. राघवन् के अनुसार विरूपाक्ष का अनुमानित समय ई. 17 वीं शताब्दी है पिता शिवगुरु माता गोमती कौशिक गोत्रीय ब्राह्मण। "चोलचम्पू" का प्रकाशन, मद्रास गवर्नमेंट ओरियंटल सीरीज ( और सरस्वती महल सीरीज तंजौर ) से हो चुका है। "शिवविलासचम्पू" का प्रकाशन अभी तक नहीं हुआ है I इसका विवरण तंजौर कैटलाग 4160 में प्राप्त होता है। "शिवविलास - चम्पू" में विरूपाक्ष ने अपना परिचय दिया है। विलिनाथ - ई. 17 वीं शती (पूर्वार्ध) पिता-कनक सभापति । चोल प्रदेश के विष्णुपुर नामक अग्रहार में जन्म। यज्ञनारायण के प्रपौत्र । रचना- "मदनमंजरी महोत्सव" नामक पांच अंकी कपटनाटक । विव्रि काश्यप ऋग्वेद के दसवें मंडल के 163 वें सूक्त के द्रष्टा । इस अनुष्टुभ् छंदोबद्ध सूक्त का विषय है रोगनाश । इनकी एक ऋचा इस प्रकार है : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि । यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काज्जिह्वाया वि वृहामि ते । । अर्थात्, हे रोगी, मै तेरी आंखों, कान, नाक, जीभ और मस्तिष्क के रोगों को दूर करता हूं। विशाखदत्त (विशाखदेव ) समय प्रायः ई. 6 वीं शती का उत्तरार्ध । एकमात्र प्रसिद्ध रचना "मुद्राराक्षस' उपलब्ध है। अन्य कृतियों की केवल सूचना प्राप्त होती है, जिनमें "देवीचंद्रगुप्तम्” नामक नाटक प्रमुख है। इस नाटक के उद्धरण "नाट्यदर्पण " व " श्रृंगारप्रकाश" नामक काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। इसमें विशाखदत्त ने ध्रुवस्वामिनी व चंद्रगुप्त के प्रणय प्रसंग का वर्णन किया है और चंद्रगुप्त के बड़े भाई रामगुप्त की कायरता प्रस्तुत की है। "मुद्राराक्षस' में संघर्षमय राजनीतिक जीवन की कथा कही गयी है तथा चाणक्य, चंद्रगुप्त व राक्षस के चरित्र को नाटक का वर्ण्य विषय बनाया गया है। - For Private and Personal Use Only "मुद्राराक्षस" की प्रस्तावना में अपने बारे में जो लिखा है, वही इनसे संबंधित विवरण का प्रामाणिक आधार है। तदनुसार ये सामंत वटेश्वरदन के पौत्र थे, और इनके पिता का नाम पृथु था । पृथु को "महाराज" की उपाधि प्राप्त थी तथा इनके पितामह सामंत थे किंतु इन व्यक्तियों का विवरण अन्यत्र प्राप्त नहीं होता। इनके समय निरूपण के बारे में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। "मुद्राराक्षस" के भरतवाक्य में चंद्रगुप्त का उल्लेख है, पर कतिपय प्रतियों में चंद्रगुप्त के स्थान पर दंतिवर्मा, अवंतिवर्मा व रंतिवर्मा का नाम मिलता है। विद्वानों का अनुमान है कि संभवतः अवंतिवर्मा मौखरी-नरेश हों, जिनके पुत्र ने हर्ष की बहन से विवाह किया था । इन्हें काश्मीर- नरेश भी माना गया है, जिनका समय 855-883 ई. तक है । याकोबी " मुद्राराक्षस" में उल्लिखित ग्रहण का समय, ज्योतिष गणना के अनुसार, दिनांक 2 दिसंबर 860 ई. मानते

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