________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रचनाएं- प्रतिष्ठासार-संग्रह (संस्कृत), उपासकाचार (प्राकृत)
और मूलाचार की आचारवृत्ति। "प्रतिष्ठासार-संग्रह" के छह परिच्छेदों में मूर्ति-मंदिर-प्रतिष्ठाविधि का सांगोपांग वर्णन किया गया है। वसुबंधु - समय- 280 ई. से 360 के बीच। बौद्ध दर्शन के अंतर्गत “वैभाषिक" मत के आचार्यों में वसुबंधु का स्थान सर्वोपरि है। ये सर्वास्तिवाद नामक सिद्धान्त के प्रतिष्ठापकों में से हैं। ये असाधारण प्रतिभा-संपन्न कौशिक-गोत्रीय ब्राह्मण थे
और इनका जन्म गांधार देश के पुरुषपुर (पेशावर) में हुआ था। पांडित्य तथा परमार्थवृत्ति के कारण इन्हें “द्वितीय बुद्ध" की संज्ञा प्राप्त हई थी। काश्मीर में विद्याध्ययन। इनके आविर्भाव-काल के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। जापानी विद्वान् तकासुकू के अनुसार इनका समय ई. 5 वीं शती है, पर यह मत अमान्य सिद्ध होता है क्यों कि इनके बड़े भाई असंग के ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद 400 ई. में हो चुका था। धर्मरक्षक नामक विद्वान् ने जो 400 ई. में चीन में विद्यमान थे, इनके ग्रंथों का अनुवाद किया था। इनका स्थिति काल 280 ई. से लेकर 360 ई. तक माना जाता है। कुमारजीव नामक विद्वान् ने वसुबंधु का जीवन-चरित 401 से 409 ई. के बीच लिखा था, अतः उपर्युक्त समय ही अधिक तर्कसंगत सिद्ध होता है। ये 3 भाई थे- असंग, वसुबंधु व विरिचिवत्स। कहा जाता है कि इन्होंने अयोध्या को अपना कार्यक्षेत्र बनाया था और वहां 80 वर्षों तक ग्रंथरचना की। इनकी प्रसिद्ध रचना "अभिधर्मकोश" है जो वैभाषिक मत का सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथ है। जीवन के अंतिम समय में इन्होंने अपने बड़े भाई असंग के विचारों से प्रभावित होकर वैभाषिक मत का परित्याग कर योगाचार-मत को ग्रहण कर लिया था। इन्होंने हीनयान व महायान दोनों के लिये ग्रंथ लिखे। इनके अन्य ग्रंथ हैं- 1) परमार्थ-सप्तति, इसमें विंध्यवासी द्वारा प्रणीत "सांख्य-सप्तति" नामक ग्रंथ का खंडन है। 2) तर्कशास्त्र- यह बौद्ध-न्याय का प्रसिद्ध ग्रंथ है। 3) वाद-विधि- यह भी न्याय-शास्त्र का ग्रंथ है। 4) अभिधर्मकोश की टीका। 5) सद्धर्म-पुंडरीक की टीका। 6) महापरिनिर्वाण-सूत्र की टीका। 7) वज्रच्छेदिका (प्रज्ञापारमिता की टीका) और 8) विज्ञप्ति-मात्रासिद्धि। तिब्बती विद्वान् बुस्तोन के अनुसार वसुबंधु द्वारा रचित अन्य ग्रंथ हैं- पंचस्कंध-प्रकरण, व्याख्यायुक्ति, कर्मसिद्धि-प्रकरण, महायानसूत्रालंकार की टीका, प्रतीत्य समुत्पादसूत्र की टीका तथा मध्यांत-विभाग का भाष्य । ___ डा. पुऐं ने "अभिधर्मकोश" मूल ग्रंथ के साथ उसका चीनी अनुवाद, फ्रेंच भाषा की टिप्पणियों के साथ प्रकाशित किया है। इसका हिंदी अनुवादसहित प्रकाशन, हिंदुस्तानी अकादमी से हो चुका है जिसका अनुवाद व संपादन आचार्य नरेंद्रदेव ने किया है। विज्ञप्तिमात्रासिद्धि का हिंदी अनुवादसहित
प्रकाशन चौखंबा संस्कृत सीरीज़ से हो चुका है। अनुवादक डा. महेश तिवारी हैं। वसु भारद्वाज - ऋग्वेद के 9 वें मंडल के 80-81-82 इन तीन सूक्तों के द्रष्टा । पवमान-सोमस्तुति इन सूक्तों का विषय है। वसूय आत्रेय - ऋग्वेद के पांचवें मंडल के 25 व 26 इन दो सूक्तों के द्रष्टा । इन सूक्तों में अग्निदेवता की स्तुति की गयी है। वसुश्रुत आत्रेय - ऋग्वेद के पांचवे मंडल के तीन से छह तक के सूक्तों के द्रष्टा। पांचवा सूक्त आप्रीसूक्त के नाम से विख्यात है। अन्य तीन सूक्तों का विषय है : अग्निस्तुति। वस्तुपाल (वसन्तपाल) - जन्म-अणहिलवाड में। प्रपितामह चण्डप गुजरेश की राजसभा के पंडित। पिता-आशाराज (या अश्वराज)। माता- कुमारदेवी। गुरु-विजयसेन सूरि। आप कुशल प्रशासक और महाकवि थे। बालचंद्र के वसन्तविलास काव्य में इनके महाकवित्व का उल्लेख है। गुजरात के राजा वीरधवल तथा उसके पुत्र वीसलदेव के महामात्य । कवियों के आश्रयदाता । "लघु भोजराज" के नाम से विख्यात । विद्यामंडल के संचालक, जिसमें राजपुरोहित सोमेश्वर, हरिहर, नानाक पण्डित, मदन, यशोवीर और अरिसिंह थे। कवि की प्रशंसा में लिखित कीर्ति-कौमुदी और सुकृत-संकीर्तन काव्य उपलब्ध। वस्तुपाल की ही प्रेरणा से नरेन्द्रप्रियसूरि द्वारा महोदधि जैसा लक्षणग्रंथ लिखा गया। अणहिलवाण, स्तम्भतीर्थ और भृगुकच्छ में कवि द्वारा ग्रंथभण्डार स्थापित। सन् 1232 में गिरनार में जैन-मंदिरों का निर्माण। देलवाडा के मंदिरों के बीच में स्थित कलात्मक मंदिर, वस्तुपाल के बड़े भाई लुणीये की स्मृति में निर्मित लणुवसतिका नाम से प्रख्यात है। इन्होंने छह गिरनार यात्रासंघ निकाले। सन् 1240 की यात्रा में निधन। अतः समय ई. 13 वीं शताब्दी। ग्रंथ- 1) नरनारायणानन्द महाकाव्य (सन् 1230-31-16 सर्ग) महाभारत के कथानक पर आधारित है। 2) आदिनाथ-स्तोत्र, 3) नेमिनाथ-स्तोत्र 4) आराधना-गाथा । वांदन दुवस्यू - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 100 वें सूक्त के द्रष्टा । वाक्तोल नारायण मेनन - केरल-निवासी। रचनाएं- कृष्णशतक, तापार्ति-संवरण महाकाव्य और देवीस्तव । वाग्भट - (1) समय- ई. 7 वीं शती का पूर्वार्ध । आयुर्वेद पर “अष्टांगसंग्रह" नामक ग्रंथ के रचयिता। उक्त नाम से एक ही वंश में दो आयुर्वेदाचार्य हो गये है। इनमें उक्त ग्रंथ के रचयिता ने अपने ग्रंथ के उत्तरतंत्र में स्वयं के बारे में जानकारी देते हुए कहा है
मेरे पितामह का नाम वाग्भट था, और वही मेरा नाम भी रखा गया। उनके पुत्र सिंहगुप्त मेरे पिता थे और मेरा जन्म सिन्धु देश में हुआ। आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों में अष्टांग संग्रह पर सर्वाधिक टीकाएं प्राप्त होती हैं।
चिनी प्रवासी ईत्सिंग ने अष्टांगसंग्रह-कर्ता वाग्भट का उल्लेख
: 442 / संस्कत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
For Private and Personal Use Only