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के आश्रय में प्रसूत हुई और उन्हें लव तथा कुश नामक दो पुत्र हुए। वाल्मीकि ने स्वरचित रामायण इन पुत्रों को सिखाई । राम के अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर वाल्मीकि ने ही सीता के सतीत्व की साक्ष्य प्रस्तुत की। कालान्तर से वाल्मीकि विष्णु के अवतार माने जाने लगे। वाल्मीकिकृत रामायण न केवल श्रेष्ठ साहित्य की दृष्टि से ही उनकी अमर कृति है, परन्तु वह भारतीय संस्कृति का प्रतीकस्वरूप राष्ट्रीय ग्रंथ भी है। वार्ष्याणि यास्कप्रणीत अनेक निरुक्तकारों में उल्लिखित एक निरुक्तकार । भाष्यकार पतंजलि ने भी वार्ष्यायणि का 'भगवान्' इस श्रेष्ठ उपाधि से निर्देश किया है । इससे वार्ष्यायणि आचार्य की महत्ता स्पष्ट होती है।
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वासवसेन बागडान्वय । समय- ई. 14 वीं शती । ग्रंथयशोधरचरित (8 सर्ग)। गंधर्व कवि ने इसी का अनुकरण कर पुष्पदन्त के यशोधर चरित में कुछ प्रसंग सम्मिलित किये हैं। 'यशोधरचरित' का आधार लेकर संस्कृत-प्राकृत भाषाओं में अनेक ग्रंथ लिखे गये, जिनमें प्रभंजन का यशोधर चरित प्राचीनतम है।
वासुदेव मलबार निवासी । रचनाएं- मृत्युंजयस्वामी का स्तोत्र 'रविवर्मस्तुति और दमयन्तीपरिणय।
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वासुदेव कवि दुधिष्ठिर विजय' नामक महाकाव्य के प्रणेता। केरल के निवासी। इस महाकाव्य में महाभारत की कथा संक्षेप में वर्णित है। इस पर काश्मीर निवासी राजानक रत्नकंठ की टीका प्रकाशित हो चुकी है। टीका का समय है 1671 ई. । वासुदेव कवि ने 'त्रिपुर- दहन' तथा 'शौरिकोदय' नामक अन्य दो काव्यों की भी रचना की है। वासुदेव कवि समय- 15 वीं से 16 वीं शताब्दी का मध्य । कालीकट के राजा जमूरिन के सभा - कवि । इन्होंने पाणिनि के सूत्रों पर व्याख्या के रूप में 'वासुदेव-विजय' नामक एक काव्य लिखा था जो अधूरा रहा। उसे उनके भांजे नारायण कवि ने पूरा किया। वासुदेव की अन्य रचनाएं हैंदेवीचरित (6 आश्वासों का यमक काव्य), शिवोदय ( काव्य ) और अच्युत लीला (काव्य) इनका 'भंग-सन्देश' या अमरसंदेश नामक काव्य विशेष प्रसिद्ध है।
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वासुदेव दीक्षित ई. 18 वीं शती का पूर्वार्ध । पितामहादेव । माता- अन्नपूर्णा । गुरु- विश्वेश्वर वाजपेयी । ये तंजावर के सरफोजी और तुकोजी भोसले के दरबारी पंडितराज थे। इन्होंने भट्टोजी दीक्षित की सिद्धान्तकौमुदी पर 'बालमनोरमा' नामक प्रसिद्ध व्याख्या लिखी है। ये मीमांसा दर्शन के भी आचार्य थे, इन्होंने जैमिनि के सूत्रों पर 'अध्वर-मीमांसाकुतूहल- वृत्ति' नामक ग्रंथ लिखा ।
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वासुदेव द्विवेदी ई. 20 वीं शती देवरिया (उ.प्र.) के निवासी वेदशास्त्री तथा साहित्याचार्य काशी में सार्वभौम संस्कृत - प्रचार कार्यालय के संस्थापक। भारत भर भ्रमण करते
हुए, व्याख्यानों तथा नाट्यप्रयोगों द्वारा संस्कृत का प्रचार । संस्कृत प्रचार पुस्तक-माला' में छपे अनेक एकांकियों के रचयिता । कृतियां - कौत्सस्य गुरुदक्षिणा, भोजराज्ये संस्कृतसाम्राज्यम्, स्वर्गीय - संस्कृतकवि सम्मेलनम्, बालनाटक, साहित्यनिबंधादर्श, संस्कृत पत्र लेखन गीतामाला इत्यादि प्रचारोपयोगी पुस्तकें |
वासुदेव पात्र ओरिसा के अन्तर्गत खडी के संस्थानिक खिमुण्डी गजपति नारायण देव के चिकित्सक। रचना - कवि- चिन्तामणिः (24 किरण) । इस ग्रंथ में कवि संकेत तथा समस्यापूर्ति की प्राधान्य से चर्चा है। अंतिम 3 किरणों में संगीत विषयक चर्चा है। वासुदेव सार्वभौम समय ई. 13-14 वीं शती । इन्होंने मिथिला में पक्षधर मिश्र के यहां तत्त्वचिंतामणि का अध्ययन किया था । मिथिला के नैयायिक अपने यहां के न्याय-ग्रंथों को बाहर नहीं ले जाने देते थे। अतः श्री. वासुदेव सार्वभौम ने तत्वचिंतामणि तथा न्याय कुसुमांजलि नामक दो ग्रंथों को कंठस्थ कर लिया, और फिर काशी जाने के बाद उनको लिखा। फिर बंगाल में नवद्वीप जाकर न्यायशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन के लिये इन्होंने एक विद्यापीठ की स्थापना की। धार्मिक निबंधकार रघुनंदन, शाक्ततंत्र के व्याख्याकार कृष्णानंद और वैयाकरण शिरोमणि रघुनाथ भट्टाचार्य, ये तीनों ही वासुदेव सार्वभौम के शिष्य थे।
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वासुदेवानन्द सरस्वती (टेम्बे स्वामी) समय 1854-1914 ई. महाराष्ट्र के प्रसिद्ध योगी सन्त । विशाल शिष्य शाखा । पिता गणेशभट्ट टेम्बे माता रमाबाई निवास सावन्तवाडी संस्थान का माणगांव। जन्म 1854 में दादा के पास घर में ही अध्ययन | बचपन से उपासना, पुरश्चरण आदि से मंत्रसिद्धि । 21 वर्ष की आयु में विवाह । पत्नी - अन्नपूर्णा । ई. 1891 में पत्नी का देहान्त । नारायण स्वामी से उज्जयिनी में दण्डग्रहण तथा आश्रम नाम प्राप्त योगिराज श्री. वामनराव गुलवणी द्वारा इनकी सभी रचनाएं 12 खण्डों में 'वासुदेवानन्द सरस्वती ग्रंथमाला' में प्रकाशित ।
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रचनाएं शिक्षात्रय, स्त्री-शिक्षा, माघ माहात्म्य, गुरुचरित्र (द्विसाहस्त्री), श्रीगुरुसंहिता, श्रीगुरुचरित्रत्रिशती काव्य, श्रीदत्तचम्पू श्रीदत्तपुराण (सटीक), वेदनिवेदनस्तोत्रम्, कृष्णालहरी (दोनों सटीक ) । ई. 1914 में नर्मदा तीर पर गरुडेश्वर- क्षेत्र में समाधि। यहां पर उनका समाधि मंदिर बनाया गया है। इन्हें श्री दत्त का अवतार माना जाता है। संस्कृत के अतिरिक्त इन्होंने मराठी में भी अनेक ग्रंथों व स्तोत्रों की रचना की है। महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजराथ में आपका प्रभूत शिष्य संप्रदाय है। विंध्यवास ई. 3 री या 4 थीं शती । सांख्यदर्शन के एक आचार्य जिन्होंने सांख्यशास्त्र पर 'हिरण्यसप्तती' नामक ग्रंथ की रचना की।
इनके बारे में चीनी भाषा के बौद्ध ग्रंथों में कुछ जानकारी
संस्कृत वाङ्मय कोश
ग्रंथकार खण्ड / 447