Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 01
Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr
Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad

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Page 462
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org करते हुए काव्य शास्त्र के इतिहास में महत्त्वपूर्ण योग दिया है । इन्होंने उपमा को मुख्य अलंकार के रूप में मान्यता दी है और काव्य में रस का महत्त्व स्वीकार किया है। अन्य रचनाएं लिंगानुशासन, विद्याधर (काव्य) और काशिकावृत्ति (जयादित्य के सहयोग से) वामन विश्रान्त-विद्याधर नामक व्याकरण-ग्रंथ के रचयिता । अनेक स्थानों में प्राप्त उद्धरणों से ही ज्ञात वर्धमान सूरि ने इन्हें 'सहृदय चक्रवर्ती की उपाधि प्रदान की । इन्होंने अपने ग्रन्थ पर लघ्वी तथा बृहती ऐसी दो टीकाएं रची हैं। दोनों अप्राप्य । मल्लवादी ने इस व्याकरण पर न्यास की रचना की । वामन भट्ट वेमभूपाल के राजकवि । समय विक्रम का पंद्रहवा शतक । इनकी रचनाओं में काव्य, नाटक, गद्य-ग्रंथ, कोश-ग्रंथ आदि प्राप्त होते हैं। विवरण इस प्रकार है- 1. नलाभ्युदय- ( नलदमयंती की कथा । यह काव्य अपूर्ण रूप में उपलब्ध तथा त्रिवेंद्रम संस्कृत सीरीज से प्रकाशित हुआ है। 2. रघुनाथ-चरित - 30 सर्गो वाला यह काव्य-ग्रंथ अभ तक अप्रकाशित है। 3. हंसदूत (संदेश काव्य ) । 4. बाणासुर - विजय, इस अप्रकाशित काव्य का विवरण ओरियंटल लाइबेरी मद्रास की त्रिवर्षीय हत्सलिखित पुस्तक-सूची 6 में प्राप्त होता है। 5. पार्वती-परिणय- 5 अंकों का नाटक । 6. कनकलेखा चार अंकों वाले इस नाटक में व्यासवर्मन् व कनकलेखा के विवाह का वर्णन है। (अभी तक अप्रकाशित) । 7. श्रृंगारभूषण- भाण इसका नायक विलासशेखर नामक एक धूर्त व्यक्ति है। 8. वेमभूपाल चरित गद्यात्मक चरित्र ग्रंथ इसका प्रकाशन श्रीरंगम् से हो चुका है। 9. शब्दचंद्रिका10. शब्दरत्नाकर- ये दोनों कोश-ग्रंथ हैं और दोनों ही अभी तक अप्रकाशित हैं। वार्षगण्य एक सांख्य- आचार्य । इनके कालखण्ड के विषय में निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं। ये सांख्य दर्शन के विशेष विचारप्रवाह के अनुयायी थे तथा इनका योग दर्शन से अधिक सम्बन्ध था । सांख्य योग दर्शन में इन्हें भगवान् वार्षगण्य कहा गया है । इनके योग-संबद्ध सांख्य प्रवाह का वार्षगणों ने अध्ययन कर प्रचार किया। वाल्मीकि संस्कृत के आदिकवि । 'रामायण' नामक विश्वविख्यात महाकाव्य के प्रणेता। कहा जाता है कि संसार में सर्वप्रथम इन्हीके मुख से काव्य का आविर्भाव हुआ था। रामायण के बालकांड में यह कथा प्रारंभ में ही मिलती है कि एक दिन तमसा नदी के किनारे महर्षि भ्रमण कर रहे थे। तभी एक व्याध आया और उसने वहां विद्यमान क्रौंच पक्षी के युगुल पर बाण - प्रहार किया। बाण के लगने के क्रौंच मर गया और क्रौंची करुण स्वर में आर्तनाद करने लगी। इस करुण दृश्य को देखते ही महर्षि के हृदय में करुणा का स्रोत फूट पडा और उनके मुख से अकस्मात् अनुष्टुप छंद में शापवाणी फूट 446 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड · Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पडी । उन्होंने व्याध को शाप देते हुए कहा- 'जाओ, तुम्हें जीवन में कभी भी शांति न मिले, क्यों कि तुमने काम मोहित क्रौंच -युग्म में से एक को मार दिया। कवि वाल्मीकि का यह कथन सम-अक्षर युक्त चार पादों के श्लोक में व्यक्त हुआ था। कहा जाता है कि उक्त श्लोक को सुन कर स्वयं ब्रह्माजी वाल्मीकि के समक्ष उपस्थित हुए और बोले- 'महर्षे, आप आद्यकवि है। अब आपकी प्रतिभाचक्षु का उन्मेष हुआ है। महाकवि भवभूति ने इस घटना का वर्णन अपने 'उत्तररामचरित' नामक नाटक में किया है। महाकवि कालिदास ने भी अपने 'रघुवंश' नामक महाकाव्य में इस घटना का वर्णन किया है। (14-70)। ध्वनिकार ने भी अपने ग्रंथ में इस तथ्य की अभिव्यक्ति की है (ध्वन्यालोक 1-5) I महर्षि वाल्मीकि ने 'रामायण' के माध्यम से राजा राम के लोकविश्रुत पावन तथा आदर्श चरित्र का वर्णन किया है। इसमें उन्होंने कल्पना, भाव, शैली एवं चरित्र की उदात्तता का अनुपम रूप प्रस्तुत किया है। वे नैसर्गिक कवि हैं जिनकी लेखनी किसी भी विषय का वर्णन करते समय उसका यथातथ्य चित्र खींच देती है। अपनी अन्य विशेषताओं के कारण, उनके 'रामायण' को वेदों के समान पूज्य माना जाता रहा है और उसका उपयोग जन-जागृति- ग्रंथ के रूप में किया जाता रहा है। वाल्मीकि के संबंध में अनेक प्रशस्तियां प्राप्त होती हैं। अध्यात्म रामायण में स्वयं वाल्मीकि ने रामनाम की महत्ता प्रतिपादित करते हुए अपनी कथा संक्षेप में इस प्रकार बतायी है मैं ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ, किन्तु किरात लोगों में पला और बढा । मुझे शूद्र पत्नी से अनेक पुत्र हुए। मैं सदा धनुष बाण लेकर लूट-मार करता था। एक बार मुझे देवर्षि मिले। उन्हें लूटने के इरादे से मैने उन्हें रोका तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अपनी पत्नी और बच्चों से जाकर यह पूछ आऊं कि क्या वे मेरे पापों में सहभागी हैं। मैंने घर जाकर जब पत्नी और बच्चों से उक्त प्रश्न किया, तो उन्होंने यह कहकर हाथ झटक दिये कि आपके पापों से हमारा क्या संबंध । यह सुन कर मुझे बडा पश्चाताप हुआ । में देवर्षि की शरण में गया, तो उन्होंने मुझे राम-नाम के उलटे अक्षरों वाला मंत्र 'मरा-मरा' जपने का परामर्श दिया। मैंने वैसा किया तो वह मंत्र 'राम राम' ही सिद्ध हुआ। मैने एक ही स्थान पर खड़े रह कर वर्षो तक इस मंत्र का जप किया। तब मेरा शरीर चीटियों के भीटे से ढंक गया था। तपस्या पूर्ण होने पर ऋषि ने वहां आकर मुझे चीटियों के भीटे (वल्मीक) से बाहर निकलने का आदेश दिया और कहा कि वल्मीक से निकलने के कारण 'वाल्मीकि' के नाम से मेरा पुनर्ज हुआ है। ईसा पूर्व प्रथम शती से ही वाल्मीकि को रामायण की घटनाओं का समकालीन माना गया है। परित्यक्ता सीता उन्हीं For Private and Personal Use Only

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