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के कर्ता डा. केतकर इन्हें पाणिनि के समकालीन मानते है। अतः वे वर्ष के यहां पहुंचे तथा इन्होंने अपना अध्ययन पाणिनि के सूत्रों पर वार्तिकों की रचना वररुचि की मानी जाती प्रारम्भ किया। यथासमय तीनों ने वर्ष से सर्व विद्या संपादन की। है। इस कारण पाणिनि की अष्टाध्यायी समझने का मार्ग प्रशस्त
3) समय के साथ साथ आचार्य वर्ष का शिष्य संप्रदाय हो सका। पतंजलि ने अपने महाभाष्य में इनके 5032 वार्तिकों भी बढ़ता गया। उनके शिष्यों में एक पाणिनि नाम का अति का समावेश किया है। कैयट ने इनके अन्य 34 वार्तिकों का
जडबुद्धि शिष्य था। गुरु तथा गुरुपत्नी की सेवा उसे भारस्वरूप उल्लेख किया है। इनके बारे में कहा जाता है कि ये ऐन्द्र
लगती थी। इसलिये गुरुपत्नी ने उसे अपने आश्रम से भगा नामक प्राचीन व्याकरण शाखा के अनुयायी थे। उणादिसूत्र व दिया। पाणिनि बडा खिन्न हुआ तथा विद्याप्राप्ति की अभिलाषा कातंत्रकृति की रचना का श्रेय इन्हीं को दिया जाता है।
से उग्र तप करने लगा। उसके तप से प्रसन्न हो भगवान् "प्राकृत-प्रकाश" इनका महत्त्वपूर्ण व्याकरण-ग्रंथ है। यह शंकर ने उसे सब विद्याओं का मुख, व्याकरण शास्त्र नये ग्रंथ दक्षिण में काफी प्रचारित हुआ। ग्रंथ के 12 परिच्छेद सिरे से रचकर उपदिष्ट किया। यह नया शास्त्र पाकर पाणिनि हैं। 9 वें परिच्छेद में शौरसेनी, 10 वें में पैशाची व 11 वें। वररुचि को आह्वान देकर, उससे वाद करने लगा। सात दिन परिच्छेद में मागधी के लक्षण बताये गये हैं।
तक वाद चला। आठवें दिन पाणिनि हारने लगा यह देखकर 'कथासरित्सागर' में इनके जन्म-विषयक कथा इस प्रकार शिव ने इंकार किया जिससे ऐन्द्र व्याकरण लुप्त हो गया बतायी गयी है :
तथा वररुचि, जीते हुये पाणिनि के सामने मूर्ख सिद्ध हुआ। (1) भगवान् शिव जब पार्वती को एकांत में सात विद्याधरों पराजित वररुचि जीवित तथा गृहस्थ जीवन से ऊबकर की कहानी सुना रहे थे तब पुष्पदंत नामक शिवगण ने माता और पत्नी की उचित व्यवस्था कर तप से शिव को चोरी-छिपे वह कहानी सुन ली और घर आकर अपनी पत्नी प्रसन्न करने हिमालय में चला गया। निराहार रहकर उसने को सुनायी। उसकी पत्नी ने वह कहानी जब फिर से पार्वती उग्र आराधना की। प्रसन्न होकर शिव ने उसे पाणिनि को को सुनाई तो इस रहस्यभेद से कुपित होकर पार्वती ने पुष्पदंत उपदिष्ट किया हुआ व्याकरण ही दिया। वररुचि ने उसे पाकर को शाप दिया कि 'तू मनुष्य लोक में जन्म लेगा'। शाप अपनी वार्तिक रचना से उस शास्त्र को पूर्ण किया। वह सुनकर पुष्पदंत की. पत्नी घबरायी और पार्वती से क्षमा याचना कात्यायन नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। करने लगी। पार्वती ने दया-भाव से उसे कहा कि जब पुष्पदंत कथा -4) व्याडि, इन्द्रदत्त तथा वररुचि अपने गुरुवर्य के काणभूति नामक पिशाच को पुनः वही कथा सुनायेगा, तब पास गए तथा उनसे गुरुदक्षिणा क्या दी जावे यह पूछा। गुरु यह शाप दूर होगा।
ने एक कोटि स्वर्णमुद्राएं मांगी। इतना धन पास न होने पर (2) कौशाम्बी नगर के सोमदत्त ब्राह्मण को उसकी भार्या पाटलीपुत्र के नन्दराजा से मांगने का निश्चय कर वे तीनों चले वसुदत्ता से एक पुत्र हुआ। यही था शाप से मर्त्य हुआ गये। पाटलीपुत्र पहुंचने पर उन्हें पता चला कि राजा की मृत्यु पुष्पदन्त जो आगे चल कर वररुचि नाम से प्रसिद्ध हुआ। हो गई है। तब इन्द्रदत्त राजा के मृत शरीर में प्रविष्ट हुआ उसके जन्म के समय आकाशवाणी हुई कि यह बालक तथा अपने मृत शरीर की रक्षा करने व्याडि से कहा। वह व्याकरण शास्त्र को प्रतिष्ठित करेगा। पिता का देहान्त वररुचि ___ एक दिन नन्द के पास गया तथा उससे गुरुदक्षिणा के हेतु के बाल्यकाल में ही हुआ। तब उसकी मां बडे कठिन परिश्रम एक कोटि स्वर्ण मुद्राएं मांगी। राजा ने (जिसके मृत शरीर से अपने बच्चे का भरण पोषण करती रही। एक बार उनके में इन्द्रदत्त ने प्रवेश किया था।) त्वरित वह धन दिया। व्याडि यहां लम्बा मार्ग आक्रमण कर थक हुये दो ब्राह्मण आए ने वह गुरु को अर्पण किया। तथा रात्रि के विश्राम के लिये ठहरे। उन्हें ज्ञात हुआ कि इधर नन्द के मन्त्री ने साशंक होकर इन्द्रदत्त का निश्चेष्ट वररुचि "एकश्रुतधर" (एक वक्त सुनकर धारण करनेवाला) शरीर नष्ट करवा दिया जिससे इन्द्रदत्त राजा नन्द के ही शरीर है। उन्होंने इसकी जांच की तथा उन्हें बालक के मेधावी होने में रहा। इस नन्द के राज्य से समाधान न पाकर, इन्द्रदत्त का विश्वास हुआ।
और वररुचि से बिदा होकर व्याडि तप करने चला गया। ___ इससे आनन्दित हो उन्होंने वररुचि की मां से प्रार्थना कर इधर वररुचि को नन्द ने अपना मन्त्री बनाया। कुछ समय तथा उसे प्रभूत धन देकर अपने साथ लिया तथा वहां से आनन्द से व्यतीत होने पर नन्द ने वररुचि की हत्या का चले गए। यह दो ब्राह्मण व्याडि तथा इन्द्रदत्त थे। उन्हें वर्ष आदेश दिया, क्योंकि उसे संशय हुआ कि वररुचि अन्तःपुर नामक विप्र से पाटलीपुत्र में विद्याध्ययन करना था परन्तु वर्ष में जाकर रानियों से सम्पर्क रखता है। युक्तिप्रयुक्ति से उसकी की शर्त थी कि वह एकश्रुतधर को ही ज्ञान देंगे। व्याडि जान बच पायी तथा वररुचि निर्विण्ण होकर अपनी पत्नी तथा स्वयं दो वक्त सुनकर तथा इन्द्रदत्त तीन वक्त सुनकर धारण मां के पास चला गया। वहां उसे ज्ञात हुआ कि उसकी मृत्यु कर सकते थे। अब उन्हें एक श्रुतधर भी मिल गया था। की वार्ता से उसकी मां तथा रानी ने देहत्याग किया है। तब
438 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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