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वह पूर्ण विरक्त होकर विन्ध्याटवि में प्रविष्ट हुआ। वहां तथा उनपर भिन्न-भिन्न नक्षत्रों के आधिपत्य, नक्षत्रव्यूह, ग्रहों काणभूति पिशाच से भेट होने पर, उसे अपने शाप तथा के युद्ध एवं समागम, अदि फलों का विवेचन है। बाद के पूर्वजन्म का स्मरण हो आया।
अध्यायों में वर्षफल, पर्जन्यगर्भ लक्षण, गर्भधारण, पर्जन्यवृष्टि __अन्त में वररुचि ने शिव से सुनी हुई कथा काणभूति को मापक-रीति, संध्यासमय आकाश में दिखाई देने वाली रक्तिमा, बताई तथा उसे वह गुणाढ्य के रूप में वर्तमान माल्यवान् दिग्दाह, भूकम्प या भूचाल, उल्का, परिवेष, इन्द्रधनुष्य आदि को बताने के लिये कहकर स्वयं शापमुक्त हुआ और शिवगणों। सृष्टि चमत्कारों, दिव्य, अंतरिक्ष व भौम इन तीन उत्पातों, में सम्मीलित हआ। वररुचि ने अपना गोत्र कात्यायन बताया भूगर्भजल की खोज, वास्तुप्रतिष्ठा, रत्न-परीक्षा आदि का विस्तृत है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रातिशाख्य। विवेचन है। के रचयिता कात्यायन और वार्तिककार वररुचि दोनों एक ही पंचसिद्धान्तिका ग्रंथ में पितामह, वसिष्ठ, रोमक, पुलिश व व्यक्ति थे।
सूर्य इन पांच प्राचीन सिद्धान्तों का सार दिया गया है। इसके वररुचि - “निरुक्तनिश्चय" नामक ग्रंथ के लेखक। अलावा त्रैलोक्यसंस्थान नामक पृथक् अध्याय भी इसी ग्रंथ में है। व्याकरणकार वररुचि से भिन्न । आप ने समग्र निरुक्त पर टीका विवाहपटल व योगयात्रा ग्रंथ अनुपलब्ध हैं। बृहज्जातक में न लिखते हुए, निरुक्त के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाले जन्म-काल की ग्रहस्थितियों के अनुसार व्यक्ति के लगभग 100 श्लोकों की रचना की है।
सुखदुःखों-विषयक भविष्य जानने हेतु आवश्यक जानकारी दी वराहमिहिर - भारतीय ज्योतिषशास्त्र के अप्रतिम आचार्य। गयी है। लघुजातक इसी का संक्षिप्त रूप है। सन् 595 में उज्जयिनी के निकट कायथा नामक ग्राम में वर्धमान - "गणरत्न-महोदधि" के रचयिता। इस ग्रन्थ से ये जन्म। "बृहज्जातक" इनका सुप्रसिद्ध ग्रंथ है। इनके अन्य वैयाकरणों में सप्रसिद्ध हए। उद्धरणों से ज्ञात होता है कि ग्रंथ हैं- पंचसिद्धांतिका, बृहत्संहिता, लघुजातक, विवाह-पटल, इन्होंने व्याकरण की भी रचना की थी और उसके अनुरूप योग-यात्रा व समय-संहिता। बृहज्जातक में इन्होंने स्वयं के गणपाठ श्लोकबद्ध कर उसकी व्याख्या की थी। वि.सं. विषय में जो कुछ लिखा है, उससे ज्ञात होता है कि इनका 1150-1225। इन्होंने “सिद्धराज-वर्णन" नामक एक काव्य की जन्म-स्थान कालपी या कांपिल्ल था। अपने पिता आदित्यदास भी रचना की थी। से इन्होंने ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया था और उज्जैन वर्धमान - समय- ई. 14 वीं शती। जैनधर्मी मूलसंघ, जाकर "बृहज्जातक" का प्रणयन किया था। इन्हें महाराज बलात्कारगण और भारतीगच्छ के आचार्य। धर्मभूषण के गुरु । विक्रमादित्य की सभा के (नवरत्नों) में से एक माना जाता विजयनगरवासी राजा हरिहर के मन्त्री। चैत्रदण्डनायक के पूत्र । है। इन्हें “त्रिस्कंधज्योतिष का रहस्यवेत्ता तथा "नैसर्गिक रचना-वरांग-चरित महाकाव्य (13 सर्ग, 1313 श्लोक)। कवितालता का प्रेमाश्रय" कहा गया है।
वर्धमान - कातन्त्रपंजिका पर “कातन्त्र-विस्तर" नामक टीका वराहमिहिर ने ज्योतिषशास्त्र को तीन शाखाओं में विभक्त के लेखक। वर्धमान की इस टीका पर पृथ्वीधर ने व्याख्या किया। प्रथम को तंत्र कहा है, जिसका प्रतिपाद्य है सिद्धांतज्योतिष लिखी है। दुर्गवृत्ति पर काशीराज, लघुवृत्ति, हरीराम तथा व गणित संबंधी आधार। द्वितीय का नाम होरा है, जो जन्मपत्र चतुष्टयप्रदीप व्याख्याएं उल्लिखित हैं। कातन्त्र व्याकरण पर से संबंद्ध है। तृतीय को संहिता कहते हैं, जो भौतिक फलित उमापति, जिनप्रभसूरि (कातन्त्रविभ्रम), जगद्धरभट्ट ज्योतिष है। इनके "बृहत्संहिता", फलित ज्योतिष की सर्वमान्य (बालबोधिनी) तथा पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर की टीकाएं उल्लिखित कृति है। इनके ग्रंथों की काव्यमय शैली से, ये उच्च कोटि हैं। इनमें से कातन्त्रविभ्रम पर अवचूर्णि चारित्रसिंह ने लिखी के कवि भी सिद्ध होते हैं। डा. ए. बी. कीथ ने अपने है तथा बालबोधिनी पर राजानक शितिकण्ठ ने टीका रची है। "संस्कृत साहित्य के इतिहास" में इनकी अनेक कविताओं को यह अप्राप्य है। उद्धृत किया है। इनकी असाधारण प्रतिभा की प्रशंसा पाश्चात्य वर्धमान सूरि - परमारवंशीय नगेन्द्रगच्छीय वीरसूरि के शिष्य। विद्वानों ने भी की है।
रचना- वासुपूज्य-चरित। काव्यरचना अणहिल्लपुर में सं. 1299 ___ इन्होंने अपने "पंचसिद्धान्तिका" ग्रंथ में शकसंवत् 427
में हुई। ग्रंथ में अनेक चमत्कारपूर्ण उपकथाएं हैं। को आरंभ वर्ष माना है। कुछ पंडित उसे ही उनका जन्म वर्धमान सूरि - अभयदेव सूरि के शिष्य । ग्रंथ- धर्मरत्नकरण्डक वर्ष मानते हैं। ब्रह्मगुप्त टीकाकार आमराज के अनुसार, उनकी (वि. सं. 1172) स्वोपज्ञवृत्ति महती। अशोकचंद्र धनेश्वर, मृत्यु शके 509 में हुई।
नेमिचन्द और पार्श्वचन्द्र द्वारा संशोधित।। इनका बृहत्संहिता ग्रंथ छंदोबद्ध है जिसके प्रथम 13 वल्लभाचार्य - ई. 12 वीं सदी। आपका "न्यायलीलावती" अध्यायों में सूर्यचन्द्रादि ग्रहों की गति व फलों, ग्रहणों आदि नामक ग्रंथ, वैशेषिक सिद्धांत का आगर है। उस पर अनेक की जानकारी है। 14 वें अध्याय में भरतखण्ड के 9 विभाग टीकाएं हैं। उनमें शंकर मिश्र की "कंठाभरण", वर्धमानकत
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 439
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