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पंडित पतंजलि के यहां आने लगे। पतंजलि एक यवनिका (पर्दे) की ओट में बैठ कर, शेषनाग के रूप में उन सहस्रों शिष्यों को एक साथ पढाने लगे। उन्होंने शिष्यों को कडी चेतावनी दे रखी थी कि कोई भी यवनिका के अंदर झांक कर न देखे। किन्तु शिष्यों के हृदय में इस बारे में भारी कुतूहल जाग्रत हो चुका था कि एक ही व्यक्ति एक ही समय इतने शिष्यों को ग्रंथ के अन्यान्य भाग किस प्रकार पढ़ा सकता है। अतः एक दिन उन्होंने जब यवनिका दूर की, तो उन्हें दिखाई दिया कि पतंजलि सहस्रमुख शेषनाग के रूप में अध्यापन कार्य कर रहे हैं किन्तु शेषजी का तेज इतना प्रखर था कि उन्हें देखने वाले सभी शिष्य तुरंत जल कर भस्म
भा शिष्य तुरत जल कर भस्म हो गए। केवल एक शिष्य जो उस समय जल लाने के लिये बाहर गया था, बच गया। पतंजलि ने उसे आदेश दिया, कि वह सुयोग्य शिष्यों को महाभाष्य पढाए। फिर पतंजलि चिदंबर क्षेत्र से गोनर्द ग्राम लौटे। वहां पहुंच कर उन्होंने अपनी माताजी के दर्शन किये, और फिर अपने मूल शेष रूप में वे प्रविष्ट हो गए।
महाभाष्य के समान ही पतंजलि ने आयुर्वेद की चरक संहिता भी लिखी ऐसा कहा गया है। चरक संहिता का मूल नाम है आत्रेयसंहिता। कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा थी चरक। उसके अनुयायियों को भी चरक ही कहा जाता था। ऐसा प्रसिद्ध है कि चरक लोग सामान्यतः आयुर्वेदज्ञ, मांत्रिक तथा नागोपासक थे। कहा जाता है कि पतंजलि भी उसी शाखा के होंगे। चरकसंहिता अत्रि के नाम पर होते हुए भी अधिकांश विद्वान मानते हैं कि पतंजलि ने उस पर प्रबलसंस्कार अवश्य किये होंगे। पतंजलि को आयुर्वेद की अच्छी जानकारी थी, यह बात उनके महाभाष्य से भी दिखाई देती है। उनके महाभाष्य में शरीररचना, शरीरसौंदर्य, शरीरविकृति, रोगनिदान, औषधिविज्ञान आदि के विषय में अनेक स्थानों पर उल्लेख आए हैं। __ योगसूत्रों की भी रचना पतंजलि ने ही की ऐसा प्रसिद्ध है किंतु भाष्यकार, योगसूत्रकार तथा चरकसंस्कर्ता को एक ही व्यक्ति मानना, अनेक विद्वानों को मान्य नहीं। उनका तर्क है कि ये तीनों पतंजलि भिन्न काल के भिन्न व्यक्ति होने चाहिये। योगसूत्रों में आर्ष (ऋषिप्रणीत) प्रयोग नहीं हैं। सूत्रों के अर्थों के लिये अध्याहार (वाक्यपूर्ति के लिये शब्द-योजना) की आवश्यकता नहीं पडती और उसकी रचना-शैली महाभाष्य के अनुरूप स्पष्ट एवं प्रासादिक है। इन आधारों पर डॉ. प्रभुदयाल अग्निहोत्री, महाभाष्यकर्ता को ही योगसूत्रों का कर्ता मानते हैं। अन्य किसी भी दार्शनिक की तुलना में योगसूत्रकार एक श्रेष्ठ वैयाकरण प्रतीत होते हैं। चक्रपाणि नामक एक प्राचीन टीकाकार ने भी निम्न श्लोक द्वारा पतंजलि को एक ही व्यक्ति माना है
पातंजल-महाभाष्य-चरकप्रतिसंस्कृतैः । मनोवाक्कायदोषाणां हन्तेऽहिपतये नमः ।।
अर्थ- योगसूत्र, महाभाष्य तथा चरकसंहिता का प्रतिसंस्करण इन कृतियों से, क्रमशः मन, वाणी एवं देह के दोषों का निरसन करने वाले पतंजलि को मैं नमस्कार करता हूं।
चरक शब्द के कल्पित अर्थ लेकर विद्वानों ने जो तर्क प्रस्तुत किये हैं उनमे द्विवेदी कहते हैं- अध्ययन की समाप्ति के पश्चात्, पतंजलि कुछ समय के लिये "चरक" अर्थात् भ्रमणशील रहे। विभिन्न प्रदेशों व ग्रामों में घूम-फिर कर, उन्होंने पाणिनि कात्यायन के पश्चात् संस्कृत भाषा के शब्द-प्रयोगों में जो परिवर्तन रूढ हुए उनका अध्ययन किया, और उनका निरूपण करने हेतु “इष्टि" के नाम से कुछ नये नियम बनाये।
पुणे निवासी श्री. अ. ज. करंदीकर ने चरक के चर अर्थात् गुप्तचर इस अर्थ के आधार पर अपनी संभावना व्यक्त करते हुए लिखा हैं___"प्रारंभ में पतंजलि ने एक गुप्तचर की भूमिका से भारत भ्रमण किया होगा। उस स्थिति में उनका समावेश, अर्थशास्त्र में वर्णित सत्री नामक गुप्तचरों में हुआ होना चाहिये। आर्य चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है कि पितृहीन व आप्तहीन बालकों को सामुद्रिक, मुख-परीक्षा, जादू-विद्या, वशीकरण, आश्रम-धर्म, शकुन-विद्या आदि सिखाकर, उनमें से संसर्ग अथवा समागम द्वारा वृत्त-संग्रह करने वाले गुप्तचरों का चुनाव किया जाना चाहिये। पतंजलि को गोणिका-पुत्र कह कर ही पहचाना जाता है। अतः उनके पिताजी की अकालमृत्यु हुई होगी और वे निराधार रहे होंगे। परिणामस्वरूप सत्री नामक गुप्तचरों के बीच ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई होगी, अथवा उन्होंने स्वेच्छा से ही उस साहसी व्यवसाय का स्वीकार किया होगा।" __पतंजलि के जन्मस्थान के बारे में भी विद्वानों का एकमत नहीं हैं। पतंजलि ने कात्यायन को दाक्षिणात्य कहा है। इससे अनुमान होता है, कि वे उत्तर भारत के निवासी रहे होंगे। उनके जन्म-ग्राम के रूप में गोनर्द ग्राम का नामोल्लेख हो चुका है। किन्तु गोनर्द का संबंध गोंडप्रदेश से भी मानते हैं। कतिपय पंडितों के मतानुसार गोनर्द ग्राम अवध प्रदेश का गोंडा होगा। वेबर इस गावं को मगध के पूर्व में स्थित मानते हैं। कनिंगहैम के अनुसार, गोनर्द है गौड किन्तु पतंजलि थे आर्यावर्त का अभिमान रखने वाले। अतः उनका जन्म-ग्राम, आर्यावर्त ही में कहीं-न-कहीं होना चाहिये, इसमें संदेह नहीं। उस दृष्टि से वह गोनर्द, विदिशा और उज्जैन के बीच किसी स्थान पर होना चाहिये। प्रो. सिल्व्हाँ लेव्ही भी गोनर्द को विदिशा व उज्जैन के मार्ग पर ही मानते हैं। उन्होंने यह भी बताया है कि विदिशा के समीप स्थित सांची के बौद्ध स्तूप को, आसपास के प्रायः सभी गांवों के लोगों द्वारा दान दिये जाने के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु उसमें गोनर्द के लोगों के नाम दिखाई नहीं देते। इस बात पर उन्होंने आश्चर्य भी व्यक्त
संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथकार खण्ड/361
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