Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 01
Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr
Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad

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Page 436
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यास्क - वैदिक वाङ्मय के रत्नों में निरुक्त एक अत्यंत तेजस्वी रत्न है। यद्यपि निरुक्तकार अनेक (चौदह) हुए, फिर भी आचार्य यास्क का निरुक्त कालानुक्रम से अन्तिम किन्तु गुणों से अग्रिम माना जाता है। यास्काचार्य के निरुक्त के बारह अध्याय हैं। अभी परिशिष्ट रूप में और दो गिने जाते हैं। ये परिशिष्टात्मक अध्याय भी पूर्वकाल में बारहवें अध्याय का ही भाग माने जाते होंगे ऐसा विद्वानों का तर्क है। जिस निघण्टु पर भाष्यरूप में निरुक्त की रचना हुई वह निघण्टु यास्कप्रणीत है या नहीं इस विषय में विद्वानों में एकमत नहीं। फिर भी दोनों कृतियों को एककर्तृक मानने पर ही विद्वानों का बहुमत दीखता है। यास्काचार्य ने निरुक्त के अतिरिक्त याजुषसर्वानुक्रमणी और कल्प ये दो ग्रंथ लिखे थे किन्तु वे ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। निरूक्त के आधारभूत निघण्टु के तीन कांड और पांच अध्याय और हैं। प्रथम तीन अध्याय नेघण्ट्रककाण्ड, चौथा नैगमकाण्ड और पांचवां दैवतकाण्ड के नाम से प्रसिद्ध है। इसका शास्त्रीय विवरण ही निरुक्त नाम से प्रसिद्ध है। सभी परवर्ती वेदभाष्यकारों के लिए यह ग्रंथ प्रमाणभूत रहा है। यास्क का काल, महाभारत-काल ही समझना चाहिये। महाभारत में यास्क का निर्देश है। यास्क के अतिरिक्त अन्य निरुक्तकार गालव का भी निर्देश होने के कारण वह संभावना यास्क का समय निर्धारित करने में बाधक नहीं होगी। यास्क प्रणीत निरुक्त के दो पाठ हैं, बृहत्पाठ और लघुपाठ। दुर्गाचार्य की वृत्ति लघुपाठ पर है। लघुपाठ गुर्जर पाठ के नाम से और बृहत्पाठ महाराष्ट्र पाठ के नाम से प्रसिद्ध है। वेदार्थनिर्णय के विषय में निरुक्तकार ने अधिदैवत, अध्यात्म, आख्यान, समय आदि 9 पक्ष बना कर उन सब पक्षों का यथोचित समन्वय करके दिखाया है। यही निरुक्त की विशेषता है। युधिष्ठिर मीमांसक - आधुनिक युग के प्रसिद्ध वैयाकरण । राजस्थान के अंतर्गत जिला अजमेर के विरकच्यावास नामक ग्राम में दि. 22 सितंबर 1909 ई. को जन्म। इन्होंने व्याकरण, निरुक्त, न्याय एवं मीमांसा का विधिवत् अध्ययन व अध्यापन किया है और संस्कृत के अतिरिक्त हिंदी में भी अनेक ग्रंथ लिखे हैं। संस्कृत में अभी तक 14 शोधपूर्ण निबंध, विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चके हैं। इन्होंने संस्कत के 10 ग्रंथों का संपादन किया है। 'वेद-वाणी' नामक मासिक पत्रिका के संपादक। भारतीय प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान (अजमेर) के संचालक। 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास' तीन खंडों में लिखा। इस ग्रंथ की अपूर्वता के कारण अनेक संस्करण प्रकाशित हुए। इस के अतिरिक्त काशकृत्स्र-धातु-व्याख्यान का संस्कृत अनुवाद, दैवम् पुरुषकारोपेतम् (धातुपाठविषयक) और निरुक्तसमुच्चय (वररुचि-कृत) इन ग्रंथों का संपादन युधिष्ठिर मीमांसकजी ने किया है। योगेन्द्र मोहन - जन्म- 1886 ई.। मृत्यु- 1796 ई.। पिताकाशीश्वर चक्रवर्ती। माता- रोहिणी देवी। अग्निहोत्री श्रीराममिश्र, माधव मिश्र आदि के वंशज । बंगला-देश के ऊनसिया ग्राम (परगना कोटालीपाडा, जिला 'फरीदपुर') में जन्म। शिक्षाहरिदास सिद्धान्तवागीश से। सन् 1915 से 1961 तक मतिलालसील फ्री कालेज में संस्कृत से प्रधान अध्यापक। कृतियां- कृतान्त-पराजय (महाकाव्य), संयुक्ता-पृथ्वीराज (नाटक)। बंगाली कृतियां-कर्मफल (उपन्यास) और भारते कलिनाटक। इनके अतिरिक्त कतिपय संस्कृत निबन्ध ।। रंगनाथ - काशी के निवासी। सन् 1575 में जन्म। पिताबरूलाल । माता-मौजी। ज्योतिषशास्त्रविषयक 'सूर्यसिद्धांत' पर इनकी 'गूढार्थप्रकाशिका' नामक टीका प्रसिद्ध है। रंगनाथ - समय-ई. 16-17 वीं शती । रचना- 'लक्ष्मीकुमारोदयम्' (मुद्रित)। इसमें कुम्भकोणम् के सत्पुरुष लक्ष्मीकुमार ताताचार्य का चरित्र-वर्णन है। कवि चरित्रनायक का वंशज था । चरित्रनायक विजयनगर के श्रीरंग तथा वेंकपति राजाओं के मंत्री तथा गुरु थे। इन्हें कोटि-कन्यादान की पदवी प्राप्त थी क्यों कि इन्होंने अनेक कन्याओं का दान किया था। चरित्रनायक के गुरु कांचीवरम् पीठ के आचार्य पंचमत भंजक तातादेशिक थे। रंगनाथ - समय- ई. 18 वीं शती। तामिल प्रदेश में ताम्रपर्णी तट के अग्रहार के निवासी। 'दमयन्ती-कल्याण' नामक नाटक के प्रणेता। रंगनाथ कविकुंजर - पितामह- वीरराघवसूरि कविराज । कृतियांभोजराज (अंक),रम्भारावणीय (ईहामृग) तथा अभिनवराघव (नाटक)। रंगनाथ ताताचार्य - जन्म- 1894 ई.। सरस्वती महल ग्रन्थालय, (तंजौर) के प्रमुख अधिकारी। रचनाएं- शुकसन्देश, हनुमत्प्रसादसन्देश, काव्य-रत्नावली, न्यायसभा और कुत्सितकुसीदम् (मंजूषा मासिक पत्रिका में क्रमशः प्रकाशित)। प्रारंभिक 4 कृतियां भी प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी रचनाओं में संस्कृत-वाक्यप्रचारों का अधिक मात्रा में प्रयोग है। रंगनाथ मुनि (नाथमुनि) - समय- 824 ई. 924 ई.। वैष्णव-जगत् में ये नाथमुनि के नाम से विख्यात हैं। ये शठकोपाचार्य की शिष्य-परंपरा के थे। शठकोप, मधुरकवि, परांकुशमुनि, नाथमुनि यह परंपरा है। इन्होंने आलवारों द्वारा तामिल भाषा में विरचित भक्तिपूरित काव्यों (तामिल वेद) का पुनरुद्धार किया, श्रीरंगम् के प्रसिद्ध मंदिर में भगवान के सामने उनके गायन की व्यवस्था की तथा वैदिक ग्रंथों के समान इन ग्रंथों का भी वैष्णव मंडली में अध्यापन आरंभ किया। इस प्रकार नाथमुनि ने जहां प्राचीन तामिल भक्ति ग्रंथों का उद्धार तथा प्रचार किया, वहीं नवीन संस्कृत ग्रंथों की रचना एवं वैष्णव मत का प्रचार भी किया। इनके 'योग-रहस्य' नामक ग्रंथ का निर्देश वेदांतदेशिक ने अपने ग्रंथों में किया मुनि के नाम। शठकोप, सवारों द्वारा 420 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only

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