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समय ई. 12 वीं शती का मध्य ही निश्चित होता है। "अलंकारसर्वस्व' इनकी प्रौढ कृति है। यह ग्रंथ सूत्र, वृत्ति
और उदाहरण इन तीन भागों में है। इस में छह शब्दालंकारों व 75 अर्थालंकारों का वर्गीकरण किया है। इसपर जयरथ की विमर्शिनी नामक टीका है।
रुय्यक ने साहित्य के विभिन्न अंगों पर स्वतंत्र रूप से या । व्याख्यात्मक ग्रंथों के रूप में रचना की है। इनकी रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं- सहृदयलीला (प्रकाशित), साहित्य-मीमांसा (प्रकाशित), अलंकारानुसारिणी, अलंकारमंजरी, अलंकार-वार्तिक, अलंकार-सर्वस्व (प्रकाशित), श्रीकंठस्तव, काव्यप्रकाशसंकेत (प्रकाशित) एवं बृहती। "सहृदयलीला" अत्यंत छोटी पुस्तक है जिसमें केवल 4-5 पृष्ठ है। "अलंकार-सर्वस्व" इनका सर्वोक्तृष्ट ग्रंथ है जिसमें अलंकारों का प्रौढ विवेचन है। "नाटक-मीमांसा" का उल्लेख “व्यक्ति-विवेक-व्याख्यान' नामक इनके ग्रंथ में है किंतु संप्रति यह ग्रंथ अनुपलब्ध है। "अलंकारानुसारिणी", अलंकारवार्तिक व अलंकारमंजरी की सूचना जयरथकृत विमर्शिनी-टीका में प्राप्त होती है। "व्यक्ति-विवेक-व्याख्यान", महिम भट्टकृत "व्यक्ति-विवेक" की व्याख्या है, जो अपूर्ण रूप में ही उपलब्ध है।
रुय्यक ध्वनिवादी आचार्य हैं। इन्होंने "अलंकारसर्वस्व" के प्रारंभ में काव्य की आत्मा के संबंध में भामह, उद्भट, रुद्रट, वामन, कुंतक, महिमभट्ट व ध्वनिकार के मतों का सार प्रस्तुत किया है। ऐतिहासिक दृष्टि से इनके विवेचन का अत्यधिक महत्त्व है। परवर्ती आचार्यों में विद्याधर, विद्यानाथ व शोभाकर मित्र ने रुय्यक के अलंकार संबंधी मत से पर्याप्त सहायता ग्रहण की है। राजेन्द्र मिश्र (डा.) - ई. 20 वीं शती। प्रयाग वि.वि. में अध्यापक। कृतियां- वामनावतरण (महाकाव्य) भारतदण्डक, आर्यान्योक्ति शतक व नाट्यपंचगव्य । कविसम्मेलन, राधा-माधवीय, फण्टुसचरित-भाण, नवरस-प्रहसन तथा कचाभिशाप नामक रूपकों का संकलन। इनके अतिरिक्त हिन्दी तथा जौनपुरी में भी कतिपय रचनाएं प्रसिद्ध हैं। रातहव्य आत्रेय - ऋग्वेद के पांचवे मंडल के 85 व 66 सूक्तों के द्रष्टा। 66 वें सूक्त की तीसरी ऋचा में रातहव्य का उल्लेख आया है। उक्त दोनों सूक्तों में मित्रावरुण की स्तुति की गयी है। 66 वें सूक्त को अंत में लोकमतानुवर्ती स्वराज्य की प्रार्थना की गयी है। रात्री भारद्वाजी - एक सूक्त द्रष्ट्री। आपने ऋग्वेद के दसवें मंडल के 127 वें सूक्त की रचना की है। इसमें रात्रि-देवता का स्तवन किया गया है। सायणाचार्य के अनुसार इस सूक्त के द्रष्टा कुशिक सौभर हैं। सूक्त की एक ऋचा इस प्रकार है -
रात्री व्यख्यदायती पुरुवा देव्यक्षभिः । विश्वा अधि श्रियो धित ।।
अर्थात् अनेक देशों पर राज करने वाली, द्रुतगामिनी और शोभायमान रात्रि देवी, अपने नक्षत्र रूपी नेत्रों से विश्व का निरीक्षण करती है।
दुष्टप्रहों के निवारण हेतु शांतिपाठ के रूप में इस सूक्त का पठन किया जाता है। रात्रि देवी के दो प्रकार बताये गये हैं। एक जीवरात्रि और दूसरा ईश्वररात्रि (जिसे कालरात्रि भी कहा जाता है) दुर्गोपनिषद् में दुर्गा को कालरात्रि बताया गया है। मारीचकल्प में दुर्गासप्तशती का प्रारंभ करते समय रात्रि-सूक्त के पठन का निर्देश दिया गया है। राधाकान्त देव (राजा) - ई. 19 वीं शती का पूर्वार्ध । रचना- शब्दकल्पद्रुम नामक कोशग्रंथ। राधाकृष्ण तिवारी - कविशेखर की उपाधि प्राप्त । सोलापुर-निवासी। वैष्णव सम्प्रदायी। 35 वर्ष की आयु तक भागवत के एक हजार पारायण किये थे। रचना-राधाप्रियशतकम् (विद्यार्थी-दशा में लिखित)। अन्य रचनाएं- दशावतारस्तवन, दशावतारचरित, गजेन्द्रचरित, सावित्रीचरित, बालभक्तचरित, श्रीरामचरित और श्रीकृष्णचरित। राधादामोदर - बंगाली-वैष्णव। कृति-छन्दःकौस्तुभ । राधामोहनदास - ई. 19 वीं शती। राधावल्लभसम्प्रदाय के अनुयायी व संस्कृत भाष्यकार । पिता का नाम-राजा जयसिंह देव। गोस्वामी चन्द्रलाल, रूपलाल एवं मोतीलाल के शिष्य । रीवां-निवासी संत प्रियादास ने इन्हें भक्तिमार्ग पर लाया। आपने "राधावल्लभभाष्य" व "श्रीमद्भागवतार्थ-दिग्दर्शन' इन दो ग्रंथों की रचना की है। "राधावल्लभभाष्य" में ब्रह्मसूत्र के चार अध्यायों पर भाष्य लिखा है। "भागवतार्थदिग्दर्शन" भागवत का गद्य रूप में संक्षिप्त अनुवाद है। राधामंगल नारायण- ई. 19 वीं शती। “मुकुन्द-मनोरथम्" "उदारराघवम्" तथा "महेश्वरोल्लास" इन तीन नाटकों के प्रणेता । राधामोहन सेन - कृतियां- संगीत-तरंग और संगीत-रत्न । राधारमणदास गोस्वामी - समय- विक्रमी की 19 वीं शती का पूर्वार्ध । वृंदावन के निवासी। श्रीधर स्वामी की भावार्थ-दीपिका (भागवत की श्रीधरी व्याख्या) के भावार्थ को सरल बनानेवाली "दीपिका-दीपन' के लेखक। आप अपने दीपिका-दीपन को टीका न कहकर “टिप्पण" कहते हैं। इनका यह ग्रंथ पूरे भागवत पर न होकर कतिपय स्कंधों तक ही सीमित है। इन्होंने अपने कुटुंबी जनों का निर्देश एकादश स्कंध के आरंभ में किया है। इनके समय (विक्रमी की 19 वीं शती का पूर्वार्ध) के बारे में वासुदेव कृष्ण चतुर्वेदी ने अपने ग्रंथ "श्रीमद्भागवत के टीकाकार" में विस्तृत विचार प्रस्तुत किया है।। आप श्री. चैतन्य के मतानुयायी वैष्णव संत थे।
राधावल्लभ त्रिपाठी (डा.) - जन्म दि. 15-2-1949 को, राजगढ़ (म.प्र.) में। एम्.ए. तक सभी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 425
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