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चाणक्यविजय, पुरातनबालेश्वर, समाधान, प्रायश्चित, आत्मविक्रय, राखालदास न्यायरत्न (म.म.) - मृत्यु- सन् 1921 में। कर्मफल तथा श्रीरामविजय नामक नाटक।
प्रसिद्ध नैयायिक। कृतियां- रसरत्न और कवितावली (काव्य) रमानाथ शिरोमणि - मेदिनीपुर (बंगाल) के निवासी।। डा. वे. राघवन् - (देखिए वेंकटराम राघवन्) । पारिजात-हरण नाटक के लेखक। प्रकाशन 1904 में।
राघवाचार्य - श्रीनिवासाचार्य के पुत्र । रचना- वैकुण्ठविजयचम्पू रमापति उपाध्याय - पल्ली- निवासी। भार्गव वंशी मैथिल
(भारत के अनेक मन्दिरों तथा तीर्थस्थानों का वर्णन) और ब्राह्मण। दरभंगा के राजा नरेन्द्रसिंह (1744-1761 ई.) का
इन्दिराभ्युदयम्। समाश्रय प्राप्त। पिता- श्रीकृष्णपति भी कवि थे। रचना'रुक्मिणी- परिणय' नामक छः अंकों का नाटक।
राघवेन्द्र कवि - ई. 18 वीं शती का पूर्वार्ध । 'राधा-माधव'
नामक सात अंकी नाटक के प्रणेता। रमेशचंद्र शुक्ल - एम.ए. पीएच.डी., सांख्ययोगाचार्य,
राघवेन्द्र कविशेखर • ई. 17 वीं शती का उत्तरार्ध । साहित्याचार्य, साहित्यरत्न इत्यादि उपाधियों से विभूषित। डा.
भवभूतिवार्ता नामक चम्पू के रचयिता। रमेशचंद्र शुक्लजी, अलीगढ के वाष्र्णेय महाविद्यालय में संस्कत विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए। आधुनिक संस्कृत लेखकों
राघवेन्द्र यति - माध्व संप्रदाय के प्रसिद्ध ग्रंथकार । मन्त्रार्थमंजरी में आपकी साहित्य सेवा सराहनीय है। चारुचरितचर्चा नामक
नामक ग्रंथ के प्रणेता जिसमें श्रीमध्वाचार्य कृत भाष्य का आपका गद्य निबंध संग्रह प्राचीन, मध्ययुगीन एवं अर्वाचीन
स्वतन्त्र व्याख्यान किया गया है। इस व्याख्यारूप ग्रंथ में महापुरुषों का संक्षेप में परिचय देता है। इसके अतिरिक्त शाबरभाष्य, चन्द्रिका, ऐतरेयभाष्य, अनुव्याख्यान, सूत्रकारकण्ठीरव, आपके द्वारा लिखित ग्रंथ हैं- (1) प्रबंधरत्नाकर, (2)
गीता, कण्वश्रुति आदि अनेक ग्रंथों के उद्धरण मिलते हैं जिनसे नाट्यसंस्कृतिसुधा, (3) गांधिगौरवम् (उत्तर प्रदेश शासन
राघवेन्द्र यति के पाण्डित्य की गरिमा का परिचय मिलता है। पुरस्कृत) (4) लालबहादुर शास्त्री चरितम्, (5) भरतचरितामृत, राजचूडामणि (दीक्षित) - ई. 17 वीं शती। पिता- श्रीनिवास (6) विभावनम्, (7) बंगलादेश, (8) गीतमहावीरम्, (9) दीक्षित जो षड्भाषा- चतुर, 'अद्वैताचार्य' 'अभिनव-भवभूति' संस्कृतवैभवम्, (10) यशास्तिलकम्। आपके ग्रंथ वाणी परिषद, आदि उपाधियों से प्रसिद्ध थे और जिन्हें आश्रयदाता चोल आर-6, उत्तमनगर, वाणीविहार, नई दिल्ली-59. इस स्थान राजा ने 'रत्नखेट' की उपाधि दी। इस महाकवि के पत्र पर प्राप्त हो सकते हैं।
राजचूडामणि भी कवि थे। उनके 'शंकराभ्युदय' (6 सर्ग) रयत अहोबलमन्त्री - ई. 16 वीं शती। पिता- नृसिंहामात्य।
काव्य में जगद्गुरू शंकराचार्य का चरित्र-वर्णन है। यह काव्य पितामह- चन्नय मन्त्री। रचना- कुवलय-विलास नाटक (पांच
संस्कृत मासिक 'सहदया' में क्रमशः प्रसिद्ध हुआ। अंकी)।
अन्य रचनाएं- यादव-राघव- पांडवीयम्, वृत्तरत्नावली, रविकीर्ति - प्रशस्ति-लेखक। चालुक्य पुलकेशी सत्याश्रय द्वारा
चित्रमंजरी, कामकथा और काव्यदर्पण, रघुनाथ-भूपविजय, संरक्षित । समय- ई. 7 वीं शताब्दी। प्रशस्ति में पुलकेशी के
'रत्नखेटविजय (पिता का चरित्र वर्णन)। इन्होंने 'मंजुभाषिणी' प्रताप और तेज का सरस और अलंकृत शैली में वर्णन ।
नामक रामकथा परक काव्य, एक ही दिन में लिखा था। कालिदास और भारवि के समकक्ष। 37 श्लोकों में निर्मित राजचूडामणि मखी - ई. 17 वीं शती। रचनाएंइस प्रशस्ति से दक्षिण भारत के राजनीतिक इतिहास पर विशद तत्त्वचिन्तामणि-दर्पण। प्रकाश पडता है। इतिहास की दृष्टि से इस प्रशस्ति का बहुत राजादित्य - समय- 12 वीं शती। उपनाम- पद्मविद्याधर । महत्त्व है।
पिता- श्रीपति। माता- वसन्ता। गुरु-शुभचंद्र देव । जन्मग्रामरविचन्द्र - अपरनाम मुनीन्द्र। कर्नाटकवासी। जैनपंथी माधवचन्द्र कोंडिमंडल का पूविनबाग। विष्णुवर्धन राजा के सभा-पण्डित । की गुरुपरंपरा के अनुयायी। समय- ई. 13 वीं शती। रचना- ग्रंथ- व्यवहारगणित, क्षेत्रगणित, व्यवहारिरत्न, जैनगणित सूत्र आराधनासार-समुच्चय। इस पर आचार्य कुन्दकुन्द का प्रभाव टीका उदाहरण, चित्रहसुगे और लीलावती। स्पष्ट दिखाई देता है।
राजमल्ल - काष्ठासंघी, हेमचन्द्रान्वयी। कुमारसेन के पट्टशिष्य । रविषेण - दक्षिण भारतीय महाकवि। मुनि लक्ष्मणसेन के समय- ई. 17 वीं शती। रचनाएं- 1. लाटी-संहिता, 2. शिष्य। जिनसेन और उद्योतनसूरि ने उनका नामोल्लेख किया जम्बू-स्वामिचरित (13 सर्ग, 1400 पद्य), 3. है। अतःसमय सातवीं शताब्दी निश्चित है। रचना- पद्मचरित अध्यात्म-कमलमार्तण्ड (4 अध्याय, 101 पद्य), 4. पिंगलशास्त्र जो 123 पर्यों में विभक्त है। विमलसूरि के 'पउमचरिय' पर और 5. पंचाध्यायी। आगरा और नागरा कार्यक्षेत्र रहा। यह ग्रंथ आधारित है। कवि ने कथावस्तु के साथ वानरवंश, राजवर्मा ए. आर. - समय- 1863-1918 ई.। सन् 1890 राक्षसवंश आदि की बुद्धिसंगत व्याख्याएं की हैं। यह ग्रंथ में विद्यालयों के अधीक्षक। सन् 1899 में त्रावणकोर के जैनरामायण नाम से विदित है।
संस्कृत शिक्षण के सुपरिण्टेण्डेण्ट । मद्रास वि.वि. के एम.ए. ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 423
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