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प्रमथनाथ तर्कभूषण ( म.म.) वाराणसी के राजपण्डित ताराचन्द्र के पुत्र जन्म सन् 1866 में, भाटपारा, जिला चौबीस परगना, बंगाल में कृतियां (काव्य) रासरसोदय, विजयप्रकाश, और कोकिलदूतम् ।
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प्रयस्वन्त आत्रेय आपने ऋग्वेद के 5 वें मंडल के 20 वें सूक्त की रचना की है। अग्नि की स्तुति उस सूक्त का विषय है। प्रस्तुत सूक्त की एक ऋचा इस प्रकार है ये अग्ने नेरयन्ति ते वृद्धा उग्रस्य शवसः । अप द्वेषो अपह्वरो न्यव्रतस्य सश्चिरे ।। (ऋ. 5.20.2) अर्थ- हे अग्निदेवता, आप उम्र एवं उत्कट बलाढ्य होने पर भी जो उच्च पद पर पहुंचे हुए अथवा वयस्क लोग आपके अंतःकरण को (भक्तिद्वारा) द्रवीभूत नहीं करते, वे निश्चित ही दूसरों की सेवा में रत पुरुषों के द्वेष व तिरस्कार के पात्र होते हैं।
प्रयाग वेंकटाद्रि रचना विद्वन्मुखभूषण ( महाभाष्य टिप्पणी) । इसी ग्रंथ के अड्यार में उपलब्ध दूसरी प्रति का नाम है । विद्वन्मुखमण्डन ।
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प्रयोग भार्गव ऋग्वेद के 8 वें मंडल का 102 वां सूक्त इनके नाम पर है। आपने विविध नामों से अग्नि की स्तुति की है। अन्न की प्राप्ति के हेतु किये जाने वाले प्रयत्नों के सफल होने की वे कामना करते हैं। उनकी एक ऋचा इस प्रकार है - त्वया ह विधुजा वयं चोदिष्ठेन यविष्य
अभिष्मो वाजसातये । (ऋ. 8.102.3)
अर्थ हे अति युवा अग्ने, समृद्धि हेतु हमें प्रेरणा देने वाले आपकी सहायता से हम लोग अन्न की प्राप्ति के लिये किये जाने वाले युद्ध में शत्रु का पराभव करेंगे।
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प्रह्लाद बुवा ई. 18 वीं शती। अमृतानुभव नामक (ज्ञानेश्वर कृत) आध्यात्मिक मराठी ग्रंथ का संस्कृत में अनुवाद किया। पिता- शिवाजी। गुरु- राघव पंढरपुर (महाराष्ट्र) के निवासी । बाल्यकाल से ही परमार्थ में रुचि । बाल्यजीवन विषयक अनेक आख्यायिकाओं में से एक इस प्रकार है।
एक बार उनकी मां ने कहा “मै देवालय जा रही हूं । आंगन में दाल सूखने के लिये फैलाई हुई है। उसे गाय न खाए इसका ध्यान रखना"। मां के जाने के पश्चात् एक गाय आयी और दाल को खाने लगी, किन्तु प्रह्लाद ने उसे नहीं रोका। इसी बीच मां देवालय से लौटी। गाय को देख मां बडी क्रोधित हुई तथा गाय को मारने के लिये दौडी । तब प्रल्हाद ने मां का हाथ पकड़ा और कहा "मां, पहले अपनी दाल का वजन करके देख लो, कम हुई तो ही गाय को पीटना ।" मां ने वैसा ही किया और पाया कि दाल तनिक भी कम नहीं हुई।
छत्रपति शिवाजी महाराज की
औरंगजेब
378 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
मृत्यु के उपरान्त,
अति विशाल सेना के साथ दक्षिण पर छा गया। देवालयों को गिराना और देव मूर्तियों की विटंबना करना, उसके अत्याचारों का प्रमुख अंग था। अतः पंढरपुर जाकर भगवान् विठ्ठल की मूर्ति को नष्ट करने का उसने निश्चय किया। यह बात विदित होते ही प्रह्लादबुवा ने विठ्ठल मूर्ति को देवालय से उठाकर अपने घर में छिपा दिया। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् उस मूर्ति की देवालय में पुनः प्राणप्रतिष्ठा की गई। कहा जाता है कि वह मूर्ति आज तक वहां है ।
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"अमृतानुभव" के संस्कृत अनुवाद के अतिरिक्त प्रल्हादबुवा ने मराठी में श्रीपांडुरंग माहात्म्य, अहिल्योद्धार, सीतास्वयंवर, प्रमाण लक्षण आदि प्रकरण ग्रंथ लिखे।
आप उत्तम कीर्तनकार भी थे। भागवत के दशम स्कंध का पारायण करते हुए माघ वद्य एकादशी के दिन प्रल्हादबुवा का देहावसान हुआ। उनकी समाधि पंढरपुरस्थित मंदिर में ही है प्रवर्तकोपाध्याय रचना महाभाष्यप्रदीप प्रकाशिका (प्रकाश) । इस ग्रंथ के अनेक हस्तलेख उपलब्ध हैं । प्रशस्तपाद ( प्रशस्तदेव ) - वैशेषिक दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य । "पदार्थधर्मसंग्रह" नामक मौलिक ग्रंथ के रचयिता । समयईसा की चतुर्थ शती का अंतिम चरण । इनके ग्रंथ का चीनी भाषा में (648 ई. में) अनुवाद हो चुका था । प्रसिद्ध जापान विद्वान डा. उई ने उसका आंग्ल भाषा में अनुवाद किया। इस ग्रंथ की व्यापकता व मौलिकता के कारण इस पर अनेक टीकाएं लिखी गई हैं। वैशेषिक सूत्र के पश्चात् इस दर्शन का अत्यंत प्रौढ ग्रंथ, “प्रशस्तपादभाष्य" ही माना जाता है। ("पदार्थधर्मसंग्रह " की प्रशस्ति, "प्रशस्तपादभाष्य" के रूप में है) यह वैशेषिक दर्शन का आकर ग्रंथ है।
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इस ग्रंथ में भाष्य ग्रंथ के कोई भी लक्षण नहीं फिर भी अनेक विद्वान् इसे भाष्यग्रंथ के तुल्य ही मानते हैं। स्वयं प्रशस्तपाद ने इसे भाष्य ग्रंथ नहीं बताया है। उदयनाचार्यजी के मतानुसार वैशेषिक सूत्रों पर प्रसिद्ध रावणभाष्य के विस्तृत होने के कारण, प्रशस्तपादजी ने वैशेषिक सिद्धान्तों का संकलन संक्षेप में किया है।
प्रियंवदा - ई. 17 वीं शती का पूर्वार्ध, पिता शिवराम | पति- रघुनाथ फरीदपुर (बंगाल) में निवास "श्यामरहस्य" (कृष्णभक्तिपरक काव्य ) की रचयित्री ।
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प्रेमचन्द्र तर्कवागीश समय ई. 19 वीं शती। बंगाली। कृतियां - शाकुन्तल, उत्तररामचरित और काव्यप्रकाश पर टीकाएं। बकुलाभरण शठगोप के पुत्र अपने "यतीन्द्रचम्पू" में इन्होंने रामानुजाचार्य का चरित्र लिखा है ।
बटुकनाथ शर्मा (प्रा.) जन्म वाराणसी में सन 1895 में। उपनाम- बालेन्द्र । काशी हिन्दू वि.वि. में प्राध्यापक । पिता ईश्वरीप्रसाद मिश्र । कृतियां- बल्लवदूत, शतकसप्तक,