Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 01
Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr
Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad

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Page 412
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "सर्वेषां तु प्रथममुखदं भारतीतीर्थमाहुः" (जिन्होंने मुझे सर्वप्रथम वाणी दी वे भारततीर्थ हैं)। माधवाचार्य को उनके जीवन के उत्तरार्ध में, भारतीतीर्थ ने ही संन्यासदीक्षा तथा 'विद्यारण्य'- अभिधान दिया। इन्होंने वाक्य-सुधा तथा वैयासिकन्यायमाला नामक दो ग्रंथों की रचना की है। "वाक्य सुधा" का दूसरा नाम “दृग्दृश्य- विवेक'' है। इस पर ब्रह्मानंद भारती रथा आनंदज्ञान यति ने टीकाएं लिखी हैं। भारद्वाज • पाणिनि के पूर्ववर्ती वैयाकरण व अनेक शास्त्रों के निर्माता। पं. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार इनका समय 9300 वर्ष वि.पू. है। इनकी व्याकरण-विषयक रचना "भारद्वाजतंत्र' थी जो संपत्ति उपलब्ध नहीं है। "ऋक्तंत्र (1-4) में इन्हें ब्रह्म, बृहस्पति व इंद्र के पश्चात् चतुर्थ वैयाकरण माना गया है। इसमें यह भी उल्लिखित है कि भारद्वाज को इंद्र द्वारा व्याकरण-शास्त्र की शिक्षा प्राप्त हुई थी। इंद्र ने उन्हें घोषवत व उष्म वर्णों का परिचय दिया था। (ऋकतंत्र 1-4) "वायु-करण' के अनुसार भारद्वाज को पुराण की शिक्षा तृणंजय से प्राप्त हुई थी। (103-63)। कौटिल्य कृत "अर्थशास्त्र" से ज्ञात होता है कि भारद्वाज ने किसी अर्थशास्त्र की भी रचना की थी (12-1)। वाल्मीकि रामायण के अनुसार उनका आश्रम प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम पर था (अयोध्या कांड, सर्ग 54)। भारद्वाज बहुप्रतिभासंपन्न व्यक्ति थे। उनकी अनेक रचनाएं हैं - भारद्वाज-व्याकरण, आयुर्वेद-संहिता, धनुर्वेद, राज्यशास्त्र, अर्थशास्त्र। प्रकाशित ग्रंथ-1. यंत्रसर्वस्व (विमानशास्त्र) और 2. शिक्षा। इनके प्रकाशक क्रमशः आर्य शाख) आर 2. शिक्षा । ३नक प्रकाशक क्रमशः आय सार्वदेशिक प्रतिनिधि सभा, दिल्ली तथा भांडारकर रिसर्च इन्स्टिट्यूट, पुणे हैं। भारवि - समय- 550 ई. के लगभग। संस्कृत-महाकाव्य के इतिहास में अलंकृत शैली के प्रवर्तक होने का श्रेय इन्हें ही है। "किरातार्जुनीय" भारवि की एकमात्र अमर कृति है। इनका जीवन-वृत्त अभी तक अंधकारमय है। इनका समयनिर्धारण पुलकेशी द्वितीय के समय के एक शिलालेख से होता है। इसमें कवि रविकीर्ति ने अपने आश्रयदाता की प्रशस्ति में महाकवि कालिदास के साथ भारवि का भी नाम लिया है और स्वयं को कालिदास व भारवि के मार्ग पर चलने वाला कहा है। इस शिलालेख का निर्माण काल 634 ई. है। कवि रविकीर्ति ने 634 ई. में एक जैन-मंदिर का निर्माण करवाया था। इससे सिद्ध होता है कि इस समय तक भारवि का यश दक्षिण में फैल चुका था। भारवि के स्थिति-काल का पता एक दान-पत्र से भी चलता है। यह दान-पत्र दक्षिण के किसी राजा का है जिसका नाम पृथ्वीकोंगणि था। इसका लेखन-काल 698 शक (770 ई.) है। इसमें लिखा है कि राजा की 7 पीढियां पूर्व दर्विनीत नामक व्यक्ति ने भारविकृत “किरातार्जुनीय" के 15 वें सर्ग की टीका रची थी। इस दान-पत्र से इतना निश्चित हो जाता है कि भारवि का समय ई. 7 वीं शती के प्रथम चरण के बाद नहीं हो सकता। वामन व जयादित्य की "काशिकावृत्ति" में भी, (जिसका काल 650 ई. है), "किरातार्जुनीय" के श्लोक उद्धृत हैं। बाणभट्ट ने अपने "हर्ष-चरित' में अपने पूर्ववर्ती प्रायः सभी कवियों का नामोल्लेख किया है किंतु उस सूची में भारवि का नाम नहीं है। इससे प्रमाणित होता है कि 600 ई. तक भारवि उतने प्रसिद्ध नहीं हो सके थे। भारवि पर कालिदास का प्रभाव परिलक्षित होता है और माघ पर भारवि का प्रभाव पड़ा है। अतः इस दृष्टि से भारवि, कालिदास के परवर्ती व माघ के पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। विद्वानों ने भारवि का काल ई छटी शती स्वीकार किया है जो बाण के 50 वर्ष पूर्व का है। 'अतः 500 ई. की अपेक्षा 550 ई. के लगभग ही भारवि के समय को मानना अधिक युक्तियुक्त प्रतीत होता है' (संस्कृत साहित्य का इतिहास-कीथ)।। ___ राजशेखर-कृत 'अवंति-सुंदरीकथा' के अनुसार भारवि परम शैव थे। 'किरातार्जुनीय' की कथा से भी यह बात सिद्ध होती है। राजशेखर ने इस आशय का उल्लेख किया है कि उज्जयिनी में कालिदास की भांति, भारवि की भी परीक्षा हुई थी। कहा जाता है कि रसिकों ने भारवि के काव्य पर मुग्ध होकर उन्हें 'आतपत्रभारवि' की उपाधि दी थी। किरातार्जुनीय के एक श्लोक (5-39) से इसका प्रमाण प्राप्त होता है। अवंतिसुंदरीकथा में भारवि का जो अन्य जीवनवृत्तांत आया है, वह इस प्रकार है - भारत के वायव्य के आनंदपुर नगर में एक कौशिकगोत्री ब्राह्मण परिवार रहता था। कुछ दिनों बाद इस परिवार ने नासिक्य देश के अचलपुर नामक नगर में स्थलांतर किया। इस परिवार के नारायण स्वामी को दामोदर नामक जो पुत्र हुआ, वही आगे चलकर भारवि नाम से विख्यात हुआ। ___ अचलपुर के राजा विष्णुवर्धन के साथ भारवि का घनिष्ट संबंध था। एक बार राजा के साथ ये शिकार खेलने गये। वहां इन्होंने राजा के आग्रह पर मांसभक्षण किया। अभक्ष्यभक्षण के पातक के विचार से ये इतने अस्वस्थ हुए कि शिकार से ये सीधे तीर्थयात्रा के लिये चल पडे। तीर्थयात्रा के काल में इनका गंग राजवंश के दुर्विनीत नामक राजा से परिचय हुआ तथा उनके निकट वे कुछ काल रहे। वहां पल्लव-नृपति सिंहविष्णु की सुतिपरक एक आर्या लिखी। वह आर्या एक गायक के हाथ लगी। उसने उसे सिंहविष्णु की राजसभा में गाकर सुनाया राजा प्रसन्न हुआ। उसने कवि के नाम-ग्राम का पता लगाकर उसे अपनी सभा में राजकवि के नाते आश्रय दिया। भारवि के महाकाव्य किरातार्जुनीय से उनका जीवनविषयक दृष्टिकोण प्रकट होता है। वे ऐहिक वैभव को महत्त्वपूर्ण मानते 396 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only

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